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अनेकान्त 60/3
प्रमाद, योग, बुरी सङ्गति आदि अन्य कारणों से हुए हैं, उन सभी पापों का नाश करने के लिये साधक को आचार्य के समक्ष आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और सत्सेवित-इन दश दोषों से रहित होकर स्वयं आलोचना करनी चाहिए। तदनन्तर संपूर्ण परिग्रहों का त्याग कर समस्त महाव्रत धारण करना चाहिये। इसमें प्रथम शरीरादिक एवं भाई, बन्धु आदि कुटुम्बी लोगों में निर्ममता (अपनत्व त्याग) का चिन्तवन कर बाह्य परिग्रह का त्याग करना तत्पश्चात् शोक, भय, स्नेह, कलुषता, अरति, रति, मोह, विषाद, रागद्वेष आदि को छोड़ कर अंतरङ्ग परिग्रह का त्याग करना चाहिये, साथ ही बारह प्रकार के व्रतों को ग्रहण करना चाहिये। इसके पश्चात् सिद्धान्त ग्रन्थों का अमृतपान तथा महा आराधना अर्थात् समाधि से सम्बन्धित ग्रन्थों को पढ़कर और तत्त्व एवं वैराग्य का निरूपण करने वाले ग्रन्थों को पढ़कर मन शान्त करना चाहिये। इनके अध्ययन के साथ ही अवमौदर्य तप के द्वारा आहार को प्रतिदिन घटाना चाहिए और अनुक्रम से घटाते-घटाते हुए समस्त आहार का त्याग कर देना चाहिए। फिर उसका भी त्यागकर तक्र (मठा) एवं छाछ का सेवन करना चाहिए। फिर उसका भी त्यागकर गर्म जल ही ग्रहण करें तथा जब तक पूर्ण रूप से अन्त समय निकट न हो तब तक जल का त्याग न करें और अन्त समय निकट आते ही उसका भी त्याग कर शुभ उपवास धारण करें। सिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी निर्यापक महाचार्य को निवेदन कर उनकी आज्ञानुसार जन्मपर्यन्त तक के लिये उपवास धारण करना एवं बहुत यत्न से उसका निर्वाह करना चाहिए। अन्त समय निकट होने पर पाँचों परमेष्ठियों के नाम का मन्त्र जाप करना चाहिए। यदि इसके उच्चारण में असमर्थ हो तो तीर्थकर के वाचक ‘णमो अरिहंताणं' इस एक ही पद का जप करें। यदि वचनों से उच्चारण में असमर्थ हो तो मन में ही जप करें। यदि मन में भी जप करने में असमर्थ हो तो उत्तर साधना करने वाले, वैयावृत्य करने वाले, अन्य लोग प्रतिदिन उसके कान में मन्त्रराज का पाठ सुनायें। इस प्रकार आराधक को मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्त में जिन मुद्रा धारण कर प्राणोत्सर्ग करना चाहिए।