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________________ अनेकान्त 603 29 सल्लेखना आत्महत्या नहीं पं. आशाधर जी ने कहा है कि विधिपूर्वक प्राणों को त्यागने में आत्मघात का दोष नहीं लगता है. अपितु क्रोधादि के आवेश से जो विषपान करके या शस्त्रघात द्वारा या जल में इबकर अथवा आग लगाकर प्राणों का घात करता है। वह आत्मघाती है, न कि वह व्यक्ति जो व्रतों के विनाश के कारण उपस्थित होने पर विधिवत् भक्तप्रत्याख्यान आदि के द्वारा सम्यक् गति से शरीर त्यागता है। आ. समन्तभद्र ने पहाड़ से गिरना, अग्नि या पानी में कुंदकर प्राण विसर्जन करने को लोकमूढ़ता कहा है। इन्हीं अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए कबीरदास ने कहा है। कि गगा में नहाने से पाप धुलते और वेकुट की प्राप्ति होती तो सारे जलचर बैंकण्ट में होते और सिर का मण्टन होने से स्वर्ग प्राप्ति होती तो भेड़ सीधे स्वर्ग जाती। जहाँ तक व्रतों की रक्षा का प्रश्न है, इस पर एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जोड़ते हुए प. कैलाशचन्द्र शास्त्री मागारधर्मामृत की टीका के विशेषार्थ मं लिखते हैं कि मुस्लिम शामन में न जाने कितने हिन्दु इस्लाम धर्म को वीकार न करने के कारण मार दिये गये, तो क्या इसको आत्मघात कहा जायेगा। जेनधर्म में भी समाधिमग्ण उसी परिस्थिति में धारण करने योग्य है जव मरण टाले भी नहीं टलता। अतः व्रतों की रक्षा एव शरीर की रक्षा- इनमें से किसी भी एक को चुनना हो तो सभी दर्शनो (चार्वाक को छोड़कर) ने व्रतों की रक्षा का ही समर्थन किया है। किन्तु जब तक शरीर विधिवत कार्य कर रहा है, तब तक उसे नष्ट न करना और जव सकल उपायों में भी धर्म का विनाशक ही सिद्ध होता हो, तो ऐसी परिस्थिति में इसको त्यागना उचित है। वेसे तो प्राणों का विसर्जन युद्धक्षेत्र में भी होता रहा है। लाखों हिन्दस्तानियों ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये है, इसे
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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