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________________ 2 अनेकान्त 60/3 सम्पादकीय चैतन्यचन्द्रोदय परीष्टि अनादि काल से इस जगत् में दो विचारधारायें सतत प्रवाहमान हैंश्रेय और प्रेय। कठोपनिषद् में कहा गया है "श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।।" विवेकी व्यक्ति प्रेय की अपेक्षा श्रेय को वरेण्य मानता है, जबकि मन्द बुद्धि वाला व्यक्ति योगक्षेम के कारण प्रेय का वरण करता है। परमपूज्य सन्तशिरोमणि दिगम्बराचार्य विद्यासागर जी महाराज द्वारा प्रणीत चैतन्यचन्द्रोदय एक ऐसा श्रेयोमार्गी 114 वृत्तात्मक लघुकाय ग्रन्थ है, जिसमें जैन सिद्धान्त का सार लवालव भरा है। इसके पठन, अध्ययन एवं अनुशीलन से अध्येता एकत्र ही समन्तभद्र की भद्रता और कुन्दकुन्द के कुन्दन को प्राप्त कर सकते हैं। चैतन्यचन्द्रोदय के लेखन का प्रयोजन आचार्यश्री ने स्वयं ‘स्वरूपलाभाय विरूपहान्यै' (पद्य 2) कहकर स्पष्ट कर दिया है कि इस ग्रन्थ में चेतनविषयक चर्चा का उद्देश्य स्व स्वरूपता को प्राप्त करना तथा विरूपता का निवारण करना है। यह प्रयोजन प्रणेतृनिष्ठ तो है ही, पाठकनिष्ठ भी है। आगम में चैतन्य या चेतना को आत्मा का लक्षण माना गया है, जिसका संवेदन यह जीव सतत करता रहता है। जीव के स्वभावरूप उस चेतना के दो भेद हैं- ज्ञान और दर्शन। चेतना की परिणति विशेष होने से इन्हें उपयोग भी कहा जाता है। साकार और अनाकार के भेद से ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में भिन्नता है। ज्ञान का विषय विशेष होता है तथा दर्शन का सामान्य। ये उपयोग संसारी अवस्था में अशुद्ध तथा मुक्त अवस्था में शुद्ध होते हैं। अशुद्धोपयोग अशुभ एवं शुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। आचार्यश्री ने उन तथाकथित तत्त्वज्ञानियों को नयपद्धति से दूर कहा है जो ऐसा मानते हैं कि द्रव्य एवं उनके गुण त्रैकालिक शुद्ध हैं तथा केवल पर्यायें ही अशुद्धता को प्राप्त होती हैं। वे लिखते हैं
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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