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________________ 3 अनेकान्त 60/3 "त्रैकालिका द्रव्यगुणा विशुद्धाः, पर्याय एवाशुचितागतस्तु। यद्दर्शनज्ञानगुणौ विशुद्धा वित्थं वदन्तो नयमार्गदूराः।। ।।।" कुछ दार्शनिकों की यह अवधारणा है कि एक ईश्वर जगत का कर्ता, पालनकर्ता एवं हर्ता है। जैन दर्शन इस बात को स्वीकार नहीं करता है। उसकी तो मान्यता है कि अनादि काल से बीज-वृक्ष की तरह योग एवं मोह के वशीभूत हो कर्मोदय से भाव और भाव से कर्मबन्ध के रूप में सृष्टि परम्परा चलती रहती है। जब मोह का अभाव हो जाता है, तब दग्ध बीज के समान उस जीव का कर्मबन्ध समाप्त हो जाता है, तथा वह जीव पूर्वबद्ध कर्मो की निर्जरा करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। चैतन्यचन्द्रोदय में इस तथ्य का अतीव शोभन विवेचन किया गया है। इस प्रसंग में ईश्वर कर्तव्य की अवधारणा के निरसन में आचार्यश्री का कथन द्रष्टव्य है: " चराचराणां जगतोऽपि कर्ता, हापि काले प्रतिपालकोऽपि । स ईश्वरोऽस्तीति वयं तदंशाः मतिं दधदुःखि जगत्सदेदम् ।।22 ।।" आगम में कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहा जाता है। कारण दो प्रकार का होता है- उपादान और निमित्त । कुछ तथाकथित नव्य अध्यात्मवादी निमित्त कारण के प्रभाव को ठीक प्रकार से स्वीकार करने में हिचकते हैं। चैतन्यचन्द्रोदय में कहा गया है " निमित्तरूपेण परप्रभावः, स्वतोऽन्यथात्वं भवनं विभावः। मणेः स्वभावो धवलोऽपि रक्तो, रक्तं च पुष्पं पुरतो यदा स्यात् ।।24।।" अर्थात् निमित्त कारण का भी अत्यन्त प्रभाव है, तभी तो वस्तु में अन्यथारूप विभाव देखा जाता है। स्फटिक मणि का धवल स्वभाव भी
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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