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________________ अनेकान्त 60/1-2 इनके दर्शन वन्दन आदि से कर्म का प्रणाशन भी होता है। धवल में शंका की गई है 'यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि को अग्नि समूह में परिणत होने का कार्य अग्नि के एक कण से भी देखा जाता है। उसी प्रकार यहाँ पर भी समझना चाहिए इसलिए आचार्यादिक भी देव हैं।" ___ मोक्षमार्ग में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु को समान रूप से वन्दना योग्य कहा गया हैं। साधुओं (आचार्य उपाध्याय साधु) में तीन परमेष्ठी गर्भित हैं। ये निर्ग्रन्थता वीतरागता निष्परिग्रहता, रत्नत्रय की विशिष्टता, निर्मोहीपना आदि गुणों से वन्द्य हैं। इनमें भी जो ज्ञान गुण की अधिकता रखता है, वह विशेष वन्दना के योग्य है। जैसा कि कहा भी गया है चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुत की विनय के अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुतजनों के पास वन्दनादि क्रिया में प्रवर्तता है तो कोई दोष नहीं परन्तु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभ के अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोप का प्रसंग आता है। ____ अरिहन्त सिद्ध के समान ही आचार्य श्रुत भक्ति में वन्दना की गई है। इच्छामि भंते! आइरिय भत्ति काउस्सग्गो तस्सालोचेउं सम्मणाण सम्मदंसण सम्मचरित जुत्ताणं पंचविहाचाराणं आइरियाणं, आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयण-गुण-पालण-रयाणं सव्वसाहणं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वन्दामि णमंसामि। ये स्तुति/विनय वाचक पदों का समान रूप से व्यवहार किया गया है। यही पद श्रुतभक्ति आदि में भी प्रयुक्त हैं। अतः यह सिद्ध है कि पूर्व में विनय वाचक पदों को किसी के साथ नियत नहीं किया था। अब वन्दना के अयोग्य का कथन है, वन्दना मनि को भी अन्य मनि के लिए कब नही करना चाहिए, यह भी जानने योग्य है। आचार्य शिवार्य लिखते हैं वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाई वंदिज्जो। आहारं च करंतो णीहारं वा जदि करेदि । 1597 ।।भगवती आ०
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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