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अनेकान्त 60/1-2
व्याकुल चित्तवाले को, निद्रा विकथा आदि में प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वन्दना नहीं करना चाहिए।
यद्यपि यह एक साधु द्वारा दूसरे साधु को वन्दना न करने का कथन है। श्रावक भी उक्त प्रमत्त दशा में प्रवृत्त साधु को वन्दना नहीं करता है तो उसमें किसी भी प्रकार की अवज्ञा (अविनय) नहीं होती है। यदि कोई दिगम्बर मनि भी है और वह रत्नत्रय से भ्रष्ट है तो भी वन्दना के योग्य नहीं है “दंसणहीणो ण वंदिव्वो” अर्थात् सम्यक्त्वविहीन वन्द्य नहीं है। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्य लिंगी साधु भी वन्द्य नहीं है क्योंकि दोनों ही संयम रहित के समान ही हैं।17 पार्श्वस्थ कुशील संसक्त, अवसन्न और मृगचारी ये पांच प्रकार के मुनि यद्यपि दिगम्बर मुद्रा को धारण करते हैं किन्तु ये जिनधर्म से वाह्य ही कहे जायेंगे। ये दर्शन ज्ञान चरित्र युक्त नहीं होते है और धर्मादि में हर्ष रहित हैं अतः वन्दना के अयोग्य हैं।18 आचार्य जयसेन का कहना है कि श्रमणाभासों के प्रति वन्दना आदि निषिद्ध ही हैं।19 स्वेच्छाचारी कोई भी हो वह पूज्य/वन्द्य नहीं है। जैसा कि इन्द्रनन्दि ने कहा है- जो कोई मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका पूर्वाचार्यों की आज्ञाओं का उल्लंघन कर कुछ भी क्रिया करते हैं, स्वेच्छाचारी बनकर यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करते हैं, उनको मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। वे महात्माओं के द्वारा वन्दनीय पूजनीय नहीं हैं। अपराजितसूरि ने लिखा है-असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात् (भ०आ०116 की विजयोदया टीका) असंयत या संयतासंयत जनों के आने पर खड़ा होना योग्य नहीं है। यह व्यवस्था मुनियों के लिए है न कि गृहस्थों को। गृहस्थ तो संयतासंयत की अभ्युत्थान आदि विनय में अवश्य करेंगे। मूलाचार में वर्णित समाचार विधि आर्यिकाओं के प्रति उचित विनय व्यवहार की शिक्षा देती है।
शास्त्रों और पुराणों में मुनियों के लिए वन्दन, नमन, प्रणमन आदि शब्दों के द्वारा विनय सर्वत्र है, किन्तु आर्यिकाओं के लिए वन्दामि वन्दना का प्रयोग शास्त्रो मे कम देखने को मिलता है किन्तु कहीं-कही