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अनेकान्त 60/1-2
वन्दामि/वन्दना शब्द का प्रयोग कब और कहां से आया है? लोक में प्रचलित है अतः स्वीकार तो किया ही जाना चाहिए किन्तु संयमधारण करने की विवक्षा से यथायोग्य विनय को जैनाचार्यों ने महत्त्व दिया है। अर्थात् पूज्यता और वन्द्यता में निर्ग्रन्थता को प्रथम स्थान है क्योंकि सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिवंदन, वन्दन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। आर्यिकाओं द्वारा साधुओं को की जाने वाली विनय-वन्दना की भी व्यवस्था है अर्थात् आर्यिकाएँ आचार्यों को पांच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन में बैठकर वन्दना करती हैं। मुनिजन आर्यिकाओ को आशीर्वाद पूर्वक समाधिरस्तु या कर्मक्षयोस्तु बोलते हैं अर्थात् मुनिजन आर्यिकाओं को वन्दामि शब्दों द्वारा विनय व्यवहार नहीं करेंगे। मुनि और आर्यिकाओं की परस्पर में वन्दना युक्त नहीं हैं। ___ वर्तमान मे गृहस्थों द्वारा वन्दना या विनय करते समय पात्र का विचार नहीं किया जाता है, जो मार्ग में दोष पैदा करता है। पात्र की योग्यता से ही विनय वाचक शब्दों का प्रयोग उचित माना गया है। ऐसा कहीं नहीं है कि किसी को भी किसी भी शब्द से विनय कर ली जाय। विनय गृहस्थो द्वारा तो की जानी चाहिए, साधुओं के द्वारा भी पात्रानुसार विनय करना अपेक्षित होता है। कहा भी गया है
राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे। विणओ जहारिहो सो कायव्वो अप्पमत्तेण।।129 । ।भग०आ०
रत्नत्रय में जो उत्कृष्ट अथवा रत्नत्रय में जो अपने से हीन हैं उनकी आर्यिकाओं में और गृहस्थ वर्ग में यह विनय यथायोग्य प्रमाद रहित होकर करनी ही चाहिए।
यहाँ स्पष्ट है कि जो श्रेष्ठ आचरण वाले हैं, उनकी विनय करना ही चाहिए। अपने से श्रेष्ठ चारित्र वालों को भी सम्मान देना ही