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________________ अनेकान्त 60/1-2 साहित्य में और अन्य प्राचीन ग्रन्थों में पंचपरमेष्ठियों को वंदामि, वंदेमि, णमोत्थ पदों से नमन किया गया है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को अरिहंत, सिद्ध, श्रुत आदि के समान ही विनय प्रगट की गई है। परिग्रहधारी कोई भी हो चाहे आर्यिका हो या श्रावक श्राविका उन्हें इच्छाकार से विनय प्रगट की गई है। लोक में देव, मानव, दानव से आरम्भ परिग्रहरहित संयमी ही पूज्य माना गया है।' आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने यह बताया है कि किसके साथ किस प्रकार की विनय की जाय, किसको क्या शब्द विनय में प्रयुक्त किया जाता है, वे लिखते हैं कि दिगम्बर मुनि वन्दना के योग्य हैं और अन्य लिंग इच्छाकार के योग्य हैं, जैसा कि उनके द्वारा लिखा गया है जे बावीस परीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होति वंदणीया कम्मखयणिज्जरा साहु ।।12।। सूत्रपाहुड अवसेसा जे लिंगी दसणणाणेव सम्मसंजुत्ता। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ।।13 ।। सूत्रपाहुड अर्थात् सैकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो 22 परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगम्बर साधु वन्दना के योग्य हैं और शेष लिंगधारी वस्त्र धारण करने वाले हैं, परन्तु जो ज्ञान, दर्शन से संयुक्त हैं, वे इच्छाकार करने योग्य हैं। ये दोनों गाथाएं वन्दना विधि को दो रूप में ही प्रतिपादित करती हैं। एक तो निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु जो सकल परिग्रह से रहित हैं, उन्हें वन्दना नमोस्तु आदि कहकर विनय करना योग्य है और जिनके पास कुछ भी परिग्रह है उन्हें इच्छामि, इच्छाकार कहकर विनय करना कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने आर्यिकाओं की विनय भी ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं जैसी बतायी है। वर्तमान में आर्यिकाओं की विनय उत्तम श्रावकों से भिन्न और अधिक होती है, इन्हें उत्तम श्रावकों से श्रेष्ठ भी माना जाता है। यह विचारणीय है कि आर्यिकाओं के लिए
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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