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अनेकान्त-581-2
किसी अन्य आचार्य की कृति माना है, उन्होंने 'अनेकान्त' वर्ष 3-4 में "क्या रत्नकरण्ड के कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही हैं' इस शीर्षक से एक लेख प्रकाशित कराया था जिसमें श्री वादिराज सूरि के पार्श्वनाथ चरित से स्वामिनश्चरितंतस्य अचिन्त्यमहिमा, देवः, त्यागी एवं योगीन्द्रो तीन पद्यों से क्रमशः स्वामी, देव और योगीन्द्र इन तीन आचार्यो की स्तुति की है और क्रमशः अप्तमीमांसा देवागमस्तोत्र के कर्ता स्वामी समन्तभद्र, देव पद से देवनन्दी जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता और रत्नकरण्डक श्रावकाचार के कर्ता योगीन्द्र ऊपर वाले किसी अन्य आचार्य को स्वीकार किया है।
ऐसे ही अन्य गवेषणाओं के साथ उन्होंने अपने जैन साहित्य और इतिहास में विषयों की प्रस्तुति की हैं जो ऊहापोह की सामग्री है। प्रेमी जी एक साहित्यकार और इतिहास विज्ञ सुयोग्य मनीषी अवश्य हैं किन्तु आगम की परिधि में रहकर लेखन करने वाले न होने से उन्हें आगम का श्रद्धालु तो नहीं माना जा सकता है। हाँ, उनकी तर्कणाशील मनीषा और साहित्य की सपर्या श्रेष्ठ है, जिसका विद्वत्परम्परा सम्मान करती है।
सन्दर्भ
1 नाहं सुलोचनार्थयस्मि मत्सरी यच्छरैरय।
परासुरधुनैव स्यात् कि मे विधवया त्वया।। 65 ।। आ. पु. पर्व 44 पृ 391 2. भदैकपुत्रः जननी जरातुरा, नवप्रसूति वरटा तपस्विनी।
तयोद्वयो जनस्तमर्दयन अहोविद्यः त्वा करुणा न रुद्धि ।। 3. आप्तागम विशुद्धत्वे क्रिया शुद्धापि देहिषु ।
नाभिजातफल प्राप्त्यै विजातिएिवव जायते।। 78 ।। उपा. पृ. 61 4. न जातिगर्हिता लोके गुणाः कल्याण कारणम् ।
व्रतस्थमपि चाण्डालानां चार्या ब्राह्मण विदुः ।। पद्मपुराण 5. जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः ।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः।। 493 ।। अच्छेद्यो मुक्ति योग्याया विदेहे जाति सतते । तद्धेतु नाम गोत्राद्या जीवाविच्छिन्न सभवात्।। 494 ।।