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________________ अनेकान्त - 58/1-2 95 क्रिया परत्वा परत्वे च कालस्य इदि दव्वकालो परूविदो" लिखते हैं । " जैनागम के अधिकारी विद्वान् आचार्य द्वारा लिखित पंक्ति स्पष्ट रूप से बता रही है कि तत्त्वार्थसूत्र गृद्धपिच्छ की रचना है। आचार्य श्री विद्यानन्दि ने गृद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनि सूत्रेण " इस पद द्वारा गृद्धपिच्छाचार्य को तत्त्वार्थसूत्र का कर्त्ता माना है । " हॉ आप्त परीक्षा की सोपज्ञवृत्ति में “तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामि प्रभृतिभिः” वाक्य मिलता है जिसके आधार पर तत्त्वार्थसूत्र अपर नाम मोक्ष - शास्त्र के कर्त्ता उमा स्वामी को भी कहा जा सकता है किन्तु किसी भी दिगम्बराचार्य ने उमास्वाति को स्वीकार नहीं किया। सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि प्रेमी जी दिगम्बर जैन परम्परा के विद्वान् होते हुए तत्त्वार्थसूत्र को यापनीय परम्परा का लिख रहे हैं। उन्होंने पूरे तत्त्वार्थसूत्र में कौन सा सूत्र ऐसा पाया जो मूलाम्नाय से विपरीत हो अथवा शिथिलता का पोषण कर रहा हो । इस मूल संहिता रूप में मान्य ग्रन्थ को यापनीय कहना प्रेमी जी के आगम के अभ्यास को बताता है । मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि प्रेमी जी ने आगम के प्रति श्रद्धा न रखकर पं. सुखलाल सिंघवी के साथ की मित्रता का निर्वाह किया। पं. सिंघवी जी ने उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्त्ता लिखा सो प्रेमी जी ने भी उसी का समर्थन किया। हाँ सिंघवी जी भी मित्रता निर्वाह में पीछे नहीं रहे, उन्होंने पहिले तो उमास्वाति को श्वेताम्बर परम्परा का सिद्ध किया बाद प्रेमी जी के साथ सहमति व्यक्त करते हुए यापनीय लिखा यापनीय सम्प्रदाय द्वारा मान्य स्त्रीमुक्ति आदि सिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र में देखने को नहीं मिलते अतः तत्त्वार्थसूत्र यापनीय सम्प्रदाय का बिलकुल भी नहीं माना जा सकता है। प्रेमी जी इस विषय में आगम के साथ न्याय नहीं कर पाये । आगम के उल्लेखों को नकारना नहीं चाहिए क्योंकि एक प्रमाण से प्रकाशित अर्थज्ञान दूसरे प्रमाण के प्रकाश की अपेक्षा नहीं करता है अन्यथा प्रमाण के स्वरूप का अभाव प्राप्त हो जायेगा । आगम की प्रमाणिकता असिद्ध नहीं है क्योंकि जिसके बाधक प्रमाणों की असंभावना अच्छी तरह निश्चित है, उसको असिद्ध मानने में विरोध आता है अर्थात् बाधक प्रमाणों के अभाव में आगम की प्रमाणता का निश्चय होता ही है। पं. प्रेमी जी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार को आचार्य श्री समन्तभद्र से भिन्न
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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