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अनेकान्त-58/1-2
अपरिवर्तनीय बताये।
इससे स्पष्ट है कि विदेह क्षेत्र में वर्ण व्यवस्था अनादि है और भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित करने के कारण सादि है किन्तु इसके बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी आचार्य भक्ति में लिखते हैं 'देश, कुल जाति से शुद्ध विशुद्ध मन वचन काय से संयुक्त ऐसे हे गुरुदेव! तुम्हारे चरणकमल हमारे लिए हमेशा मंगलमयी होवे।' ___ इस विषय को अधिक विस्तार का अवसर नहीं है। यह तो स्वतंत्र पुस्तक लिखने का विषय है अतः आचार्य सोमदेव के इस सन्देश को स्वीकार करिये धर्मभूमि में स्वभाव से ही मनुष्य कम कामी होते हैं। अतः अपनी जाति की विवाहित स्त्री से ही सम्बन्ध करना चाहिए, अन्य कुजातियों की स्त्री से बन्धु वान्धवों की तथा व्रती स्त्रियों से भी सम्बन्ध नहीं करना चाहिए।
स्व. बाबू श्री बहादुर सिहं सिंघी की स्मृति में "भारतीय विद्या" शीर्षक से प्रकाशित हुए तृतीय भाग में प्रेमी जी द्वारा तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता विषय पर लिखा हुआ आलेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की है। वे तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के कर्ता उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता स्वीकार करते हैं, उनकी यह स्वीकारोक्ति प्रज्ञाचक्ष पं. सुखलाल जी द्वारा प्रतिपादित मान्यता के समर्थन में है। सिंघवी जी उमास्वाति को श्वेताम्बर परम्परा का मानते हैं किन्तु पं. नाथूराम प्रेमी यापनीय परम्परा का बताते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र के कर्तृत्व के सम्बन्ध में प्रेमी जी के विचारों से ऐसा लगता है कि उन्होंने मूल ग्रन्थों का विशेष अध्ययन नहीं किया था क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में तत्वार्थसूत्र के रचयिता गद्धपिच्छ और उमास्वामी के उल्लेख ही मिलते हैं। इस ग्रन्थ को कहीं भी यापनीय सम्प्रदाय का नहीं कहा गया है।
कलिकाल सर्वज्ञ उपाधिविभूषित आचार्य वीरसेन स्वामी काल द्रव्य की चर्चा करते हुए “तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतय सुत्ते विवर्तना परिणाम