________________
अनेकान्त-58/1-2
११
परिभाषा भगवज्जिन सेनाचार्य ने इस प्रकार की है
पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते।। 85।। विशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुवर्णिता।। 86 ।। अर्थात् पिता के वंश की शुद्धि को कुल और माता के वंश की शुद्धि को जाति कहते हैं तथा कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को सज्जाति कहते हैं और इस सज्जातिरूप सम्पदा से ही पुण्यवान मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम वंशों को प्राप्त होते हैं कहा भी है
विशुद्ध कुल जात्यादि सम्पत्सज्जाति रुच्यते।
उदितोदित वंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती।। 84 ।। __ शुद्ध कुल और शुद्ध जाति में जो उत्पन्न हुए हैं, उन्हें ही सज्जातित्व परमस्थान प्राप्त हुआ है, व होगा।
‘सज्जाति' व्यवस्था है तो जातिव्यवस्था भावना ही होगी इस विषय मे गुणभद्रआचार्य कहते हैं – “जिनमें शुक्लध्यान के लिए कारण ऐसे जाति गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं, उनसे अतिरिक्त शेष शुद्र कहे जाते हैं विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहाँ उस जाति के ये कारणभूत नाम और गोत्र-सहित जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में ही जाति की परम्परा चलती है अन्य कालों में नहीं। जिनागम में उक्त प्रकार से ही वर्ण विभाग बतलाया गया है।'
नापुराण पर्व सोलह में विदेह क्षेत्र में विद्यमान वर्ण-व्यवस्था का चित्रण करते हुए असि, मषि, कृषि, विद्या वाणिज्य एवं शिल्प इन छह क्रियाओं की तथा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो की स्थिति और घर ग्राम नगर आदि की व्यवस्था इस भरत क्षेत्र कर्मभूमि में भी होना चाहिए तभी सौधर्मेन्द्र ने जिनमन्दिर आदि सहित मांगलिक रचना की। शिक्षाएँ और तीन वर्णो की स्थापना की। प्रजा को अपने अपने वर्णोचित कार्य निश्चित किए गये और वह