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अनेकान्त-58/1-2
है तो उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है जैसे कि क्रियाऍ शुद्ध होने पर भी विजातीय लोगों से कुलीन सन्तान रूप उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। पद्मपुराण के एक उल्लेख से विजातीय विवाह का समर्थन किसी को भी उचित नहीं है । '
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आगम साहित्य के अन्तर्गत सामाजिक व्यवस्थाओं का वर्णन नहीं है किन्तु पुराण साहित्य उसी का अनुकरण करता है और प्रथमानुयोग के अन्दर आता है, पुराण साहित्य को भी आगम की मर्यादा स्वीकार कर शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं । साहित्यकारों ने अपनी लेखनी को जो मर्यादा विहीन बनाया है उसकी को आधार बनाकर लिखा जा रहा है। प्रेमी जी ने विजातीय और अन्तर्जातीय विवाह का भी समर्थन किया है । वे एक विद्वान् थे, उन्हें लेखन के लिए आगम का अवलोकन अवश्य करना चाहिए था किन्तु उन्होंने निम्नलिखित आगम के सन्दर्भों की उपेक्षा कर विजातीय विवाह का समर्थन किया है 1
त्रिलोकसार में मुनि को आहारदान देने वाले की शुद्धि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जातिसंकरादि दोषों से रहित पिण्ड शुद्धि वाला व्यक्ति ही आहार दान का अधिकारी है
दुब्भाव असुचि सूदग पुफ्फवई जाईसंकरादीहिं ।
कयदाणा कुवत्ते जीवा कुणरेषु जायन्ते ।। 924 । । त्रिलोकसार
अर्थात् जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक आदि से एवं पुष्पवती स्त्री के स्पर्श से युक्त जातिसंकर आदि दोषों से सहित होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं, वे जीव मरकर कुभोग भूमि (कुमनुष्यों) में जन्म लेते हैं।
वर्ण, वंश, गोत्र अनाद्यनन्त हैं, इसी प्रकार जाति भी हैं आचार्य सोमदेव लिखते हैं- "जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथा विद्या ।। 18 ।। यशस्तिलकचम्पू
सप्त परमस्थानों में सज्जातित्व को प्रथम स्थान दिया गया है जिसकी