________________
अनेकान्त-58/1-2
चन्द्रनखा को जब खरदूषण ने हरण कर लिया, तब रावण अत्यन्त क्रुद्ध होता है और खरदूषण को मारना चाहता है तभी मन्दोदरी कहती है
89
कथञ्चिच्च हतेप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता ।
अन्यस्मै नैव विश्राण्या केवलं विधवी भवेत् ।। 36 ।। पद्मपुराण पर्व
यदि किसी तरह वह खरदूषण मारा भी गया तो हरण के दोष से दूषित कन्या अन्य दूसरे को नहीं दी जा सकेगी उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा ।
आदिपुराण का प्रसंग भी ध्यातव्य है जब सुलोचना ने स्वयंवर में जयकुमार के गले में वरमाला डाल दी, तब भरत सम्राट के पुत्र अर्ककीर्ति कुछ लोगों के भड़काने से युद्ध के लिए तैयार हो गये, उसी बीच अर्ककीर्ति कहते हैं "मैं सुलोचना को भी नहीं चाहता हूँ क्योंकि सबसे ईर्ष्या करने वाला यह जयकुमार अभी मेरे बाणों से ही मर जावेगा तब उस विधवा से मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा ।' रैनमन्जूषा, अनन्तमती चर्चा, सीता आदि के शीलपालन की अनुकरणीयता भव्य प्रमोद ग्रन्थ का यह कथन भी विचारणीय है
मैं पति की झूठन भई योग न जोग न आन । मेरी जो इच्छा करे के कागा के श्वान ।। यहाँ मुक्त होने पर विरक्ति का ही समर्थन है ।
आचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू के 13वें अध्याय में विधवा के लिए दो मार्ग बताये हैं । एक जिनदीक्षा ग्रहण करना और दूसरा वैधव्य दीक्षा लेना । आचार्य वचन इस प्रकार है
तत्र वैधव्य दीक्षायां देशव्रत परिग्रहः । कण्ठसूत्र परित्यागः कर्णभूषणवर्जनम् ।। शेषभूषा निवृत्तिश्च वस्त्र खण्डान्तरीयकम् । उत्तरीयेण वस्त्रेण मस्तकाच्छदनं तथा । । खट्वा शय्याञ्जनालेपं हारिद्रप्लववर्जनम् । शोकाक्रन्द निवृत्तिश्च विकथानां विवर्जनम् ।। प्रातः स्नानं तथा नित्यं सन्ध्यावन्दनं तथा ।