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आगम की कसौटी पर प्रेमी जी
-डॉ. श्रेयांसकुमार जैन पण्डित श्री नाथूराम ‘प्रेमी' विचार एवं चिन्तन की दृष्टि से पूर्ण स्वतन्त्र थे। विचार नियन्त्रण में प्रेमी' जी का विश्वास नहीं रहता है। निन्दा एवं प्रशंसा उन्हें विचलित नहीं कर सकी है। वे एक ऐसे साहित्यकार थे जो चिन्तन संकीर्ण मतवादों, साम्प्रदायिक एवं सामाजिक स्थूल सीमाओं को पार कर गये थे। उनकी मान्यता थी कि चिन्तन को स्वतन्त्र करना अत्यन्त अवश्यक है। उन्होंने समग्र भारतीय दर्शनों एवं भारतीय धर्मो का गहराई से अध्ययन किया था। अध्ययन के साथ सामाजिक कार्यो में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी।
'प्रेमी' जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मुझे विचार नहीं करना है किन्तु उनकी इतिहासकार और साहित्यकार की छवि प्रत्येक अध्येतः को लुभाती है। साहित्य व्यक्ति के जीवन का साकार रूप होता है। साहित्य केवल जड़ शब्दों का समूह नहीं है, उसमें व्यक्ति का जीवन बोलता है। साहित्यकार की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी साहित्य-साधना को यथार्थ से जोड़कर चले। संस्कृति की संरक्षा में ही अपने विचारों को गतिमान करे। विचार साधक या साहित्यकार के पथ के अन्धकार को नष्ट भ्रष्ट करने वाला अलोक है। विचारों की परिपक्वता साहित्य सृजन में महत्वपूर्ण योगदान देती है। यही कारण है कि साहित्यकार की समाज और संस्कृति के संरक्षण में अहं भूमिका होती है। वह समाज और शासन पर अंकुश लगा सकता है। वह समाज की कुप्रवृत्तियों को दूर कर सकता है। वह विकास के लिए कार्य करता है न कि संस्कृति के विनाश के लिए। जहाँ पं. श्री नाथूराम प्रेमी ने आधुनिक युग की भावनाओं को मान्यता प्रदान करायी, वहीं प्राचीन परम्परा और शास्त्र पुराणों में प्रतिपादित संस्कृति को नुकसान पहुंचा और उनकी साहित्यकार की भूमिका जैन शास्त्रों की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उन्होंने अपने अलेखों