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________________ 86 अनेकान्त-58/1-2 आवश्यक है। आज तो लोग परिग्रह संचय के लिए न्याय-अन्याय का भेद छोड़कर अन्य जनों के अधिकारों को दबाकर भी शोषण करते हैं। बिडम्बना तो यह भी है कि परिग्रह को पाप बताये जाने के बाद भी उसके संचयी को पुण्यात्मा कहकर अभिनन्दनीय बना दिया गया है। यहाँ तक कि जिन भगवान ने सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया उन पर भी सोने-चांदी के छत्र चढ़ाये जाते हैं और उसे वैभव के रूप में महिमामंडित किया जाता है। ___ परिग्रह स्वयं में एक रोग है यह जिसे लग जाता है वह दिनरात इसी में लगा रहता है; किन्तु जो निष्परिग्रही होता है वह कभी बैचेन नहीं रहता। जिसके पास परिमित परिग्रह है वह चैन से रहता है, चैन से खाता है और चैन से सोता है तथा अणुव्रत रूप में पालन करे तो कर्मो की निर्जरा भी करता है अतः परिग्रह का परिमाण कर सुखी होना ही इष्ट है, उपादेय है। सन्दर्भ 1. आचार्य ज्ञानसागर : वीरोदय महाकाव्य, 1/38-39, 2. आचार्य शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव, 3 वृहत् हिन्दी कोश, पृ. 650, 4. आ उमास्वामी-तत्त्वार्थसूत्र 7/17, 5 आ पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि 7/17/695, 6 वही, 6/15/638, 7. राजवार्तिक 4/21/3/236, 8 वही 6/15/3/525, 9 धवला 12/4, 2, 8, 6/282/9, 10. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, 3/24, 11 समयसार-आत्मख्याति/210, 12 आ. अमृतचंद्र · पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 117, 13. वही, 116, 14. सर्वार्थसिद्धि 7/17/695, 15. आ. गुणभद्र :, 16. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 119, 17. ज्ञानार्णव, 16/12/178, 18 सर्वार्थसिद्धि 7/20/701, 19. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल 339-340, 20. रत्नकरण्डश्रावकाचार, 61, 21. तत्त्वार्थसूत्र 6/17, 22. वही, 6/15, 23. कबीर . साखी 24. स्वय का लेख- 'सामाजिक बनने की प्रथम शर्त अपरिग्रह भावना' जैनगजट, वर्ष 100, अंक-30 में प्रकाशित। 25 मूकमाटी, 460-461, 26. वही, 467-468 -एल 65, न्यू इन्दिरा नगर बुरहानपुर (म. प्र.)
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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