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अनेकान्त-58/1-2
समाजवाद की अवधारणा अगर अंश है तो परिग्रह परिमाण उस अंश को पाने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है जो क्रमशः परिमित होते हुए जब अपरिग्रह की स्थिति में आता है तो पूर्ण एवं सफल लक्ष्य बन जाता है। यहाँ अर्थ की अनर्थता की नित्य भावना करने वाला प्राणी धन को स्वपरोपकार का निमित्त मात्र मानता है। सर्वप्रथम अपनी अभिलाषाओं को सन्तोष में बदलकर वह दानशीलता की ओर उन्मुख होता है। परिग्रह का परिमाण करता है और निरन्तर आत्मविकास करता हुआ परिमाण किये परिग्रह में भी ममत्व छोड़कर पूर्ण अपरिग्रही बन जाता है। "
संसार में शान्ति परिग्रह परिमाण से ही संभव है। किन्तु स्वार्थ और संचय की प्रवृत्ति ने समाजवाद को स्थापित ही नहीं होने दिया। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने स्वार्थ की इस प्रवृत्ति का इस रूप में उल्लेख किया है
स्वागत मेरा हो मनमोहक विलासितायें मुझे मिलें अच्छी वस्तुएं ऐसी तामसता भरी धारणा है तुम्हारी फिर भला बता दो हमें आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी? सबसे आगे में
समाज बाद में।" 25 परिग्रह परिमाण करके शेष सम्पदा के वितरण के विषय में आचार्य श्री की धारणा है कि
“अब धनसंग्रह नहीं जन संग्रह करो और लोभ के वशीभूत हो समुचित वितरण करो