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अनेकान्त-58/1-2
परिग्रह संचय का ही यह दुष्परिणाम है कि एक ओर जहाँ लोग भूख से मर रहे हैं वहीं दूसरी ओर धनाढ्य वर्ग गरिष्ठ भोजन करके अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रहे हैं। कुछ लोगों के 'लक्झरी' साधनों के लिए 'नेसेसरीज' वस्तुओं से भी लोग वंचित किये जा रहे हैं। तात्कालिक लाभ भले ही अनैतिक तरीकों से प्राप्त हो; उसे प्राप्त करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। ऐसे में यदि कोई समुचित मार्ग बचता है तो वह परिग्रह परिमाण ही है। कुंवर बैचेन ने ठीक ही कहा है
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी।
किसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो।। एक बार महात्मा गांधी से किसी मारवाड़ी सेठ ने पूछा कि- गांधी जी, आप सबसे टोपी लगाने को कहते हैं; यहाँ तक कि आपके अत्यन्त आग्रह के कारण टोपी के साथ आपका नाम जुड़कर 'गांधी टोपी' हो गया है, लेकिन आप स्वयं टोपी क्यों नहीं लगाते?
यह प्रश्न सुनकर गांधी जी ने उनसे पूछा कि 'आपने यह जो पगड़ी बाँध रखी है इसमें कितनी टोपियां बन सकती हैं? मारवाड़ी सेठ ने कहा कि"बीस"।
तब गांधी जी ने कहा कि “जब तुम्हारे जैसा एक आदमी बीस टोपियों का कपड़ा अपने सिर पर बाँध लेता है तो मुझ जैसे उन्नीस आदमियों को नंगे सिर रहना पड़ता है।" यह उत्तर सुनकर वह सेठ निरुत्तर हो गये।
वास्तव में परिग्रह परिमाण ही गृहस्थ को सामाजिक बनाता है। परिग्रह की दीवारें हमारे प्रति घृणा एवं विद्वेष को जन्म देती हैं। अली अहमद जलीली का एक शेर है कि
नफरतों ने हर तरफ से घेर रखा है हमें,
जब ये दीवारें गिरेंगी रास्ता हो जायेगा।। परिग्रह परिमाण के लिए समाजवाद की अवधारणा सामने आयी।