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अनेकान्त-58/1-2
परिग्रह पाप है - जैनागम में पाँच पाप माने गये हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कशील और परिग्रह। इसके अनुसार परिग्रह भी पाप है। परिग्रह बनाम मूर्छा पाँचों प्रकार के पापों का मूल स्रोत है। जो परिग्रही है तथा परिग्रह के अर्जन, सम्बर्द्धन एवं संरक्षण के प्रति सचेत है वह हिंसा, झूठ, चोरी व अब्रह्म में से बच नहीं सकता। 'सवार्थ सिद्धि' के अनुसार- 'सब दोप परिग्रह मूलक हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं और इसमें हिंसा अवश्यभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में प्रवृत्त होता है। नरकादि में जितने दुःख हैं वे सव इससे उत्पन्न होते हैं।
आ. गुणभद्र की दृष्टि में- “सज्जनों की भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धन से नहीं बढ़ती। क्या कभी समुद्र को स्वच्छ जल से परिपूर्ण देखा जाता है?"
शुद्धैधनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः।
न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ।।। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी के अनुसार परिग्रह में हिंसा होती हैहिंसा पर्यात्वासिद्धा हिंसान्तरङ्गसङगेषु।
बहिरङगेषु तु नियतं प्रयातु मूडूंव हिंसात्वम् ।। 16 अर्थात् हिंसा के पर्यायरूप होने के कारण अन्तरंग परिग्रह में हिंसा स्वयं सिद्ध है और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं। परिग्रह त्याग की प्रेरणा - जैनाचार्यों ने परिग्रह त्याग हेतु इसे अणुव्रत, प्रतिमा एवं महाव्रत के अन्तर्गत रखा है। अणुव्रत एवं प्रतिमा सद्गृहस्थ श्रावक एवं परिग्रह-त्याग-महाव्रत मुनि धारण करते हैं। परिग्रह परिमाण - परिग्रह दुःख मूलक होता है। 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि
संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाशुभम्। तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दुःखं वाचामगोचरम्।।"