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अनेकान्त-58/1-2
अर्थात् परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। उसे नरकगति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है।
दुःख रूप परिग्रह से बचने के लिए जैनाचार्यो ने परिग्रह को परिमाण (सीमित) करने का अणुव्रत के रूप में मान्यता दी है।
'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार – ‘धन्धान्यक्षेत्रादीनमिच्छावशात् कृत परिच्छेदो गृहीति पञ्चमणुव्रतम्" 18 अर्थात् गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है इसलिए उसके पाँचवां परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार
जो लोहं णिहणित्ता संतोस - रसायणेण संतुट्ठो। णिहणदि तिण्हादुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ।। जो परिमाणं कुव्वदि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं।
उवयोगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स ।। अर्थात् जो लोभ कषाय को कम करके, सन्तोष रूपी रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगैरह का परिमाण करता है उसके पांचवां (परिग्रह परिमाण) अणुव्रत होता है। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में आचार्य समन्तभद्र देव ने कहा है कि
धनधान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता।
परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाणनामापि।।20 अर्थात धन-धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह को परिमित अर्थात् उसका परिमाण करके कि 'इतना रखेंगे' उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाणव्रत है तथा यही इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता है।
इस प्रकार संचित परिग्रह को निरन्तर कम-कम करते जाने का संकल्प तथा संकल्पानुसार कार्य परिग्रह परिमाण कहा जाता है। परिग्रह परिमाण आवश्यक – परिग्रह संचय एक मानवीय मानसिक विकृति