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अनेकान्त-58/1-2
धारणा में परिग्रह ‘परितो गृह्यति आत्मानमिति परिग्रहः' अर्थात जो सब ओर से आत्मा को जकड़े; वह परिग्रह है। __ आचार्य उमास्वामी के अनुसार 'मूर्छा परिग्रह है' - “मूर्छा परिग्रहः ।'' इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है कि “गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन, अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपधि का सरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्छा है। आचार्य पूज्यपाद की ही दृष्टि में “ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः' अर्थात् यह वस्तु मेरी है। इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। राजवार्तिक के अनुसार- “लोभकषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं।' "ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते" अर्थात् यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ; इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह
धवला पुस्तक के अनुसार- “परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणामः । 'परिग्रह्यते इति परिग्रहः' अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है; इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है तथा “परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः” जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है; इस निरुक्ति के अनुसार यहाँ बाह्य पदार्थ के ग्रहण में कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
समयसार आत्मख्याति के अनुसार 'इच्छा परिग्रहः' अर्थात् इच्छा ही परिग्रह है।" परिग्रह के भेद - परिग्रह के दो भेद हैं- 1. बाह्य, 2. अन्तरंग। बाह्य परिग्रह में भूमि, मकान, स्वर्ण, रजत, धन-धान्य आदि अचेतन तथा नौकर-चाकर, पशु, स्त्री आदि सचेतन पदार्थ शामिल किये जाते हैं। 12 अन्तरङ्ग परिग्रह में मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद भावनायें व्यक्ति के अन्तरंग परिग्रह हैं।