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अनेकान्त-58/1-2
गुणों के मीर हो शान्ति से अमीर हो।। एक से नेक हो अनेकान्त से अनेक हो।
शम, दम, दया, त्याग के स्वयं सन्देश हो।। भगवान महावीर ने कहा कि आशा-तृष्णा के ताप से तप्त मन हितकर नहीं। अर्थ अनर्थ न कर दे इसलिए अर्थ की अनर्थता का चिन्तन करो“अर्थमनर्थं भावय नित्यं ।" गृहस्थ अर्थ का उपार्जन करे किन्तु वह न्याय की तुला पर खरा उतरना चाहिए। अन्याय, अनीति से कमाया गया धन विसंवाद कराता है, संघर्ष के लिए प्रेरित करता है अतः वह मल की तरह त्याज्य है। गृहस्थ के लिए धन साधन बने, साध्य नहीं और साधु के लिए धन सर्वथा त्याज्य है। यहाँ तक कि वह उसके प्रति ममत्व भी न रखे तभी समत्व की साधना पूरी होगी। इसीलिए भगवान की वाणी अमृत रूप बनी, भगवान का चारित्र सम्यक् चारित्र बना। उनके चारित्र से संसार जान सका कि जोड़ने में सुख नहीं; सुख तो त्यागने में है। हमारी तो भावना है कि हम भगवान महावीर के जीवनादर्शो को अपनायें ताकि शान्ति मिले, समता हो और संघर्षों से छुटकारा मिले। वीतरागता का उनका आदर्श प्रयोग की कसौटी पर कसा हुआ खरा है जिसके प्राप्त होने पर न संसार बुरा है, न व्यक्ति बल्कि; स्वयं अपनी आत्मा प्रिय लगने लगती है और लक्ष्य बन जाता है आत्मा को जीतो, आत्मा को पाओ। परिग्रह - 'वृहत् हिन्दी कोश' के अनुसार 'परिग्रह' शब्द का अर्थ लेना, ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, आवेष्टित करना, धारण करना, धन आदि का संचय, किसी दी हुई वस्तु को ग्रहण करना, किसी स्त्री को भार्या रूप में ग्रहण करना, पत्नी, स्त्री, पति, घर, परिवार, अनुचर, सेना का पिछला भाग, राहु द्वारा सूर्य या चन्द्रमा का ग्रसा जाना, शपथ, कसम, मूल आधार, विष्णु, जायदाद, स्वीकृति, मंजूरी, दावा, स्वागत-सत्कार, आतिथ्य सत्कार करने वाला, आदर, सहायता, दमन, दंड, राज्य, सम्बन्ध, योग, संकलन, शाप बताया गया है।" इसमें एक ओर जहाँ परिग्रह को संचय के अर्थ में लिया है वहीं शाप के अर्थ में भी रखा है जिससे परिग्रह की शोचनीय दशा प्रकट होती है। जैनाचार्यों की