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अनेकान्त-58/1-2
इहलोक, परलोक; दोनों से च्युत हुए। कहने का तात्पर्य यही है कि इन्द्रियजयी होने पर ही चारित्रिक श्रेष्ठता प्राप्त होती है।
भगवान महावीर से पूर्व यह धारणा बन गई थी कि धर्मसाधन तो वृद्धावस्था में करणीय है; किन्तु भगवान महावीर ने कहा कि धर्म के लिए कोई उम्र नहीं होती। वह तो बचपन में भी किया जा सकता है, घोर युवावस्था में भी। उन्होंने तीस वर्ष की युवावस्था में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर अपनी साधना को एक नया आयाम ही नहीं दिया अपितु आध्यात्मिक क्रान्ति का शंखनाद किया; जिसका चरम और परम लक्ष्य था-स्वयं को जीतो। जो स्वयं को जीतता है वास्तव में वही जिन है। भगवान महावीर ने कहा कि जीतना है तो स्वयं को जीतो, मारना है तो स्वयं के विकारों को मारो। भेद देखने वाला संसारी है और जो भेद में भी अभेद (आत्मा) को देख लेता है वह मोक्षार्थी है। सब जीवों से ममता तोड़ो और समता जोड़ो। शस्त्रप्रयोग मत करो और जिनवचन रूप शास्त्रों के विरुद्ध आचरण मत करो। भगवान महावीर ने काम जीता, कषायें जीतीं, इन्द्रियों को जीता ओर विषमता के शमन हेतु समता को अपनाया और मोक्ष पाया। हमारा यही लक्ष्य होना चाहिए। ___ गांधी जी ने इस युग में भगवान महावीर के दर्शन को आत्मसात् किया था। उन्होंने लिखा कि-"जो आदमी स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी से अनुचित लाभ नहीं उठाता, सदापवित्र मन रखकर व्यवहार करता है, वह आदमी धार्मिक है वही सुखी है और वही पैसे वाला है। मानव जाति की सेवा उसी से बन सकती है। “आज आवश्यकता है भगवान महावीर की, एक प्रेरक आदर्श की; जो बता सके कि चारित्र का मार्ग ही वरेण्य है।" मेरी यह पंक्तियां इन्हीं भावनाओं की उद्भावक हैं
हे वीर प्रभु इस धरा पर आज तुम फिर से पधारो। हे वीर प्रभु सब काज कर आज मम जीवन निहारो।। हो गया मानव जो दानव दनुजता उसकी मिटाओ। सरलता से, नेह-धन से सहजता उसकी बचाओ।। हे वीर तुम आनन्द की मूर्ति निर्वेर हो।