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अनेकान्त-58/1-2
____ 'वीर' ने जन्म लेकर 'वर्द्धमान' नाम सार्थक करते हुए महावीरत्व की साधना पूर्ण की। वे पूर्ण-ज्ञान होते ही केवलज्ञानी-सर्वज्ञ बने। उनके सदविचारों का सम्प्रेषण दिव्यध्वनि के माध्यम से हुआ। उन्होंने आचार सिखाने से पूर्व अपने विचारों से मानव हृदयों, पशु-पक्षियों तक को अभिसिंचित किया। उनकी धारणा थी कि विचार विहीन आचार जड़ता का प्रतीक है। नीति कहती है
चारित्रं नरवृक्षस्य सुगंधि कुसुमं शुभम्।
आकर्षण तथैवात्र लोकानां रंजनं महत् ।। अर्थात् चारित्र मनुष्य रूपी वृक्ष का सुन्दर, सुगन्धित पुष्प है। सुन्दर, सुगन्धित पुष्प के समान ही उदात्त चरित्र सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है और सबको प्रसन्नता प्रदान करता है।
इस चारित्र की सुगन्ध तभी प्राप्त हो सकती है जबकि यह व्यक्ति धर्म से जुड़े, धर्मात्मा बने। धर्मपालन मन की शुद्धि, विचारों की शुद्धि एवं कार्यो की शुद्धि से ही संभव है। मन की शुद्धि के विषय में कहा गया है कि
मनः शुद्धयैव शुद्धिः स्याद् देहिनां नात्र संशयः।
वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम्।। अर्थात् मन की शुद्धि से आत्मा की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि के बिना केवल शरीर को कष्ट देना व्यर्थ है। सत्वारित्र की प्राप्ति के लिए जितेन्द्रिय होना आवश्यक है। 'ज्ञानार्णव' में आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है कि
इन्द्रियाणि न गुप्तानि नाभ्यस्तश्चित्त निर्जय। न निवेदः कृतो मित्र नात्मा दुःखेन भावितः।। एवमेवापवर्गाय प्रवृत्तैान साधने।
स्वमेव वञ्चितं मूढैर्लोकद्वयपथच्युतैः।।' अर्थात् हे मित्र! जिसने इन्द्रियों को वश में नहीं किया, चित्त को जीतने का अभ्यास नहीं किया, वैराग्य को प्राप्त नहीं हुए, आत्मा को कष्टों से भाया नहीं और वृथा ही मोक्ष हेतु ध्यान में प्रवृत्त हो गये; उन्होंने अपने को ठगा और