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________________ अनेकान्त-58/1-2 का नौ मास, दसवीं का दस मास, और ग्यारहवीं का ग्यारह मास तक पालने का विधान है। प्रथम को एक माह पालन करने पर ही दूसरी प्रतिमा ग्रहण की जाती है इस प्रकार ग्यारहवीं तक का क्रम है और ग्यारह माह तक ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन कर मुनिव्रत ग्रहण किया जाता है। अर्थात् कुल छयासठ माह प्रतिमाओं का पालन किया जाता है। उक्त भिन्नता होने पर भी दोनों परम्पराओं में प्रतिमाओं का विशद विवेचन है। प्रकृत में प्रत्येक प्रतिमा का संक्षिप्त रूप में वर्णन प्रस्तुत है : दर्शनप्रतिमा - जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है संसार, शरीर और भोगों से विरक्त है पञ्च परमगुरुओं के चरणों की शरण को प्राप्त है और सत्यमार्ग को ग्रहण करने वाला या पक्ष वाला है वह दर्शन प्रतिमा का धारी दार्शनिक श्रावक है। इस प्रतिमा का धारक सम्यक्त्व सहित अष्टमूलगुणों का पालन करता है। व्रतप्रतिमा - जो श्रावक माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीनों शल्यों से रहित होकर निरतिचार अर्थात् अतिचार रहित निर्दोष रूप से पांच अणुव्रत और सात शीलव्रतों को धारण करता है, वह व्रती पुरुषों के मध्य में व्रत प्रतिमाधारी व्रती श्रावक माना गया है। प्रथम प्रतिमा में तीन शल्यों का अभाव नहीं होता है और अणुव्रतों में कदाचित् अतिचार लगते हैं किन्तु दूसरी प्रतिमा में आते ही तीनों शल्ये छूट जाती हैं और पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन होने लगता है। तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का सातिचार पालन होता है। दर्शन और व्रत प्रतिमा में यही अन्तर है। __सामायिकप्रतिमा - जो चार बार तीन तीन आवर्त और चार प्रणति करके यथाजात बालक के समान निर्विकार बनकर खड़गासन या पद्मासन से बैठकर मन-वचन-काय शुद्ध करके तीनों सन्ध्याओं में देव-गुरु-शास्त्र की वन्दना और प्रतिक्रमण आदि करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।" व्रत प्रतिमा में सामायिक शील रूप कहा गया है। शील रूप अवस्था में अतिचार लगता रहता है। समय की निश्चितता नहीं होती और तीन बार का नियम भी नहीं है किन्तु यहाँ सामायिक व्रत अंगीकार करने पर प्रतिमा रूप
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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