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अनेकान्त-58/1-2
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ग्यारहवीं प्रतिमा उद्दिष्टत्याग है। यह भी श्रावक है। श्रावक की उत्कृष्ट अवस्था है किन्तु श्रमण सदृश आचार नहीं हो सकता क्योंकि ग्यारहवीं प्रतिमा वाले के भी वस्त्र का परिग्रह रहता है। ___ प्रत्येक प्रतिमा के भावरूप (उअध्यात्मरूप) आर द्रव्यरूप (बाह्यरूप) ये दो रूप होते हैं। बाह्यरूप दृश्य है और अध्यात्मरूप अदृश्य है। वह स्वसंकोच मात्र है। पण्डित श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री ने इस अध्यात्मरूप को समझाते हुए लिखा है - "जब चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का क्षय होता है। अर्थात् उनके उदय का अभाव होता है और देशघातिस्पर्धकों का उदय रहता है, तब राग द्वेष के घटने से निर्मल चिद्रूप की अनुभूति होती है, वह अनुभूति सुखरूप है या उस अनुभूति से उत्पन्न हुए सुख का स्वाद उन प्रतिमाओं का अनन्त रूप है। ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर रागादि घटते जाते हैं त्यों त्यों आगे की प्रतिमाओं में निर्मल चिद्रूप की अनुभूति में वृद्धि होती जाती है और उत्तरोत्तर आत्मिक सुख बढ़ता जाता है। इसके साथ ही श्रावक ही बाह्य प्रवृत्ति में परिवर्तन आये बिना नहीं रहता। वह प्रतिमा के अनुसार स्थूल हिंसा आदि पापों से निवृत्त होता जाता है। ऐसा श्रावक सतत भावना करता है कि मैं गृहस्थाश्रम को छोड़कर कब मुनिपद धारण करूँ।
पण्डित जी ने प्रतिमाधारी श्रावक को शुद्ध आत्मानुभूति होने की जो चर्चा की है, वह सैद्धान्तिक ग्रन्थों से भिन्नता रखती है क्योंकि जब तक भी अन्तरंगपरिग्रह और बहिरंगपरिग्रह से निवृत्ति नहीं होगी तब तक शुद्धानुभूति असंभव है।
दिगम्बर परम्परा में प्रतिमाओं के काल का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला गृहस्थ गुरु की साक्षी पूर्वक व्रत ग्रहण के साथ जितनी प्रतिमाएं ग्रहण करता है उनका विधिवत् पालन करते हुए पूरा जीवन व्यतीत कर सकता है अथवा मुनिपद ग्रहण कर महाव्रती बनकर आत्म साधना कर सकता है किन्तु श्वेताम्बर साहित्य में तो प्रथम प्रतिमा एक मास, द्वितीय प्रतिमा दो मास, तीसरी तीन मास, चौथी चार मास, पांचवीं का पांच मास, छठी का छ: मास, सातवीं का सात मास, आठवीं का आठ मास, नवीं