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अनेकान्त - 58/1-2
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प्रतिमाओं का तथा अन्त में विनय, वैय्यावृत्त पूजा प्रतिष्ठा और दान का वर्णन विस्तार से किया है। आचार्य अमितगति भी ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन करते हैं किन्तु वह समन्तभद्राचार्य के समान व्रतों के वर्णन के पश्चात् करते हैं ।
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दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में प्रतिमाओं की संख्या ग्यारह ही है किन्तु नाम और क्रम में कुछ भेद है। दिगम्बर परम्परा में - ( 1 ) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, ( 4 ) प्रोषध, ( 5 ) सचित्तत्याग, (6) रात्रिभुक्तित्याग, (7) ब्रह्मचर्य, (8) आरम्भत्याग, ( 9 ) परिग्रहत्याग, ( 10 ) अनुमतित्याग, ( 11 ) उद्दिष्टत्याग
पण्डित आशाधर इन्हीं के नाम से श्रावकों के भेद प्रतिपादन करते हैं, उन्होंने कहा है- क्रम से पूर्व - पूर्व गुणों में प्रौढ़ता के साथ, सम्यग्दर्शन सहित । आठ मूलगुण निरतिचार अणुव्रतादि, सामायिक, प्रोषधोपवास तथा सचित्त से, दिवामैथुन से, स्त्री से, आरम्भ से, परिग्रह से, अनुमत से, और उद्दिष्ट भोजन से विरति को प्राप्त ग्यारह श्रावक होते हैं। " ये दार्शनिक आदि ग्यारह प्रकार के श्रावक तीन भेद रूप से भी वर्णित किये हैं- दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, दिवामैथुनविरत ये छह गृहस्थ कहलाते हैं तथा श्रावकों में जघन्य होते हैं । अब्रह्मविरत, आरम्भविरत और परिग्रहविरत ये तीन वर्णी या ब्रह्मचारी कहलाते हैं और श्रावकों में मध्यम होते हैं। अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये दा भिक्षुक कहे जाते हैं और श्रावकों में उत्तम होते हैं । ( सागारधर्मामृत 12 / 2-3 श्लोक) ।
सोमदेव ने भी आदि की छह प्रतिमा वालों को गृहस्थ आगे की तीन प्रतिमा वालों को ब्रह्मचारी और अन्तिम दो ( अनुमतिविरत, उद्दिष्ट विरत वाले) को भिक्षुक कहा है | चारित्रसार में प्रथम छह को जघन्य उनसे आगे के तीन को मध्यम और अन्तिम दो प्रतिमाओं के धारक को उत्तम श्रावक कहा है। (पृ. 98)
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श्वेताम्बर परम्परा में समवायांग में 11 प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है । दिगम्बर परम्परा में आचार्य समन्तभद्र, सोमदेव, अमितगति, वसुनन्दी पं. आशाधर जी ने विशेष वर्णन किया है, किन्तु उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंकदेव,