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अनेकान्त-58/1-2
की भक्ति और श्रद्धा को दृढ़ करने के लिए अपने विचारों को उच्च एवं परिष्कृत करने के लिए तथा स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। व्रत का भंग होना अहितकारी है, जैसा कि कहा भी है “गुरु अर्थात् पञ्चपरमेष्ठी गुरु या परम्परा दीक्षित गुरु की साक्षी से लिए हुए व्रत या प्रतिज्ञा को प्राणनाश होने तक भी नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि प्राणनाश केवल मरण के समय ही दुःखकर है परन्तु व्रत का नाश भव भव में दुःखदायी है।' व्रत को धारण करना प्रतिज्ञाबद्ध होना है।
प्रतिज्ञा का नाम ही प्रतिमा है। जब भोगों के प्रति अरुचि जागृत हो जाये और नियम लेने के लिए दृढ़ता आ जाये तभी प्रतिज्ञा' विशेष ले लेने पर क्रमवार उन्नति आरम्भ हो जाती है। श्रावक की उन्नत्ति के लिये श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्परा में एकादश सीढ़ियाँ प्रतिमाएँ मानी गयी हैं। उनको आध पार मानकर श्रावकधर्म का वर्णन अनेक श्रावकाचारों में पाया जाता है। वर्णन की यह प्रक्रिया सर्वाधिक प्राचीन है क्योंकि धवल और जयधवल टीका में आचार्य श्री वीरसेन ने उपासकाध्ययन नामक अंग का स्वरूप इस प्रकार दिया है- उपासयज्झयणम णाय अंग एक्कारस लक्ख सत्तरि सहस्सपदेहिं दंसणवद ---- इदि एक्कारसवि उवासगाणं लक्खणं तेसिं च वदारीवणविहाणं तेसिमाचरणं च वण्णेदि धवल पृ. 107 (उवासयज्झयणं णाम अंगं सण वय सामाइयपोसहोवाससचित्तरायिभत्तबंभारंभपरिग्गहाणुमणुद्दिट्ठणामाणमेकारसण्हमुवासयाणं धम्गमेक्कारसविहं वण्णेदि जयधवल गा. 9 पृ. 130)
यहाँ उन्हीं का आश्रय लेकर प्रतिपादन किया जा रहा है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम ग्यारह प्रतिमाओं के धारक को देशविरत गुणस्थान वाला कहा है। स्वामी कार्तिकेय ने ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावकधर्म का व्याख्यान किया है। उन्होंने सम्यक्त्व की महिमा बताने के पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर बारह व्रतों का स्वरूप निरूपण किया है। इनके बाद आचार्य वसुनन्दि ने स्वामी कार्तिकेय का ही अनुसरण किया किन्तु इतना अवश्य किया है कि प्रारम्भ में सात व्यसनों और उनके दुष्फलों का विस्तार से वर्णन कर मध्य में बारह व्रत और ग्यारह