________________
श्रावक साधना की सीढ़ियां : प्रतिमाएँ
-डॉ. श्रेयांस कुमार जैन मोक्षमार्ग पर आरूढ़ श्रावक अपनी भूमिका के अनुसार साधना करता है। साधना के द्वारा ही वह आत्मगुणों के विकास को प्राप्त हो सकता है। वह श्रमण का उपासक होता है। अतः उनसे तत्त्वज्ञान को जानकर/सुनकर ही जीवन पथ पर बढ़ता है। मूलगुण और उत्तरगुण में निष्ठा रखता है। अरिहन्त
आदि पञ्चगुरुओं के चरणों को ही अपनी शरण मानता है। दान और पूजा जिसके प्रधान कार्य हैं तथा ज्ञानरूपी अमृत को पीने को इच्छक होता है। श्रावक पद का अर्थ करते हुए विद्वान् लिखते हैं- "अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामागारिणाञ्च सामाचारी शृणोतीति श्रावकः'' अर्थात् जो सम्यक्त्वी और अणुव्रती होने पर भी प्रतिदिन साधुओं से गृहस्थ और मुनियों के आचार को सुने, वह श्रावक है। उसी का विस्तार करते हुए और भी लिखा है कि जो श्रद्धालु होकर जैनशासन को सुने, दीनजनों में अर्थ को तत्काल वपन करे, सम्यग्दर्शन को वरण करे, सुकृत और . पुण्य कार्य करे, संयम का आचरण करे, उसे विचक्षण जन श्रावक कहते हैं।' श्रावक आत्मकल्याण के लिए गुरुओं की साक्षी पूर्वक व्रत ग्रहण कर देशसंयमी अणुव्रती देशविरत आदि संज्ञाओं से विभूषित रहता है। संयतासंयत पञ्चम गुणस्थानवर्ती होता है क्योंकि वह स्थूल बस जीवादि की हिंसा से विरत होने के कारण संयत और सूक्ष्म या स्थावर जीवों की हिंसा से अविरत होने के कारण असंयत है अतः उसकी संयतासंयत संज्ञा व्रत ग्रहण करने पर ही बनती है। व्रत अटल निश्चय का प्रतीक है। यह एक प्रकार की प्रतिज्ञा है। इसको ग्रहण करते समय क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय का आवेश नहीं होना चाहिए। किसी के दबाव में न ग्रहण कर स्वेच्छापूर्वक ली हुई प्रतिज्ञा व्रत है। व्रत का विधान बहुधा आध्यात्मिक या मानसिक शक्ति की प्राप्ति के लिए चित्त अथवा आत्मा की शुद्धि के लिए संकल्प शक्ति की दृढ़ता के लिए ईश्वर