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अनेकान्त-58/1-2
देवसेनकृत दर्शनसार में मिलता है। देवसेन ने दर्शनसार की रचना ईसा की 9-10वीं शताब्दी में की थी। अतः अन्य अभिलेखीय एवं ऐतिहासिक प्रमाण न मिलने पर भी इसकी प्राचीनता विश्वस्त है। इसके बाद जयसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय की टीका में “प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणी श्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थ गृहीत्वा....." (पञ्चास्तिकाय टीका) कहकर उनकी विदेहगमन विषयक घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने इस घटना को 'प्रसिद्धकथान्यायेन' बतलाया है, जिससे पता चलता है कि उनके समय में यह घटना अत्यंत प्रसिद्ध थी। ___टीकाकार जससेनाचार्य का समय ईसा की 12वीं शताब्दी माना जाता है। इसके बाद 15-16 शताब्दी के षट्प्राभृत के संस्कृत टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने तथा पश्चादवर्ती अन्य विद्वानो ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। शुभचन्द्र (1516-1556 ई.) की पट्टावली में भी इसका उल्लेख है।
उक्त उल्लेखों के आधार पर यह प्रसिद्धि है कि कुन्दकुन्द आचार्य विदेह क्षेत्र गये थे और वहाँ समवशरण में विराजमान तीर्थकर श्रीमंदर (सीमंधर) स्वामी से उन्होंने दिव्यध्वनि का श्रवण किया था। सामान्यतः यह नियम है कि कोई भी प्रमत्तसंयत मुनि अपने औदारिक शरीर से दूसरे क्षेत्र में नहीं जा सकता है। आहारक शरीरधारी मुनि के लिए असंयम के निवारणार्थ यह नियम लागू नहीं होता है। किन्तु इस तरह का कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि कुन्दकुन्दाचार्य आहारक शरीरधारी थे। अतः कथा की विश्वसनीयता में सन्देह होने पर भी इसकी प्राचीनता असंदिग्ध है।
(2) गिरनार विवाद शुभचन्द्राचार्य ने पाण्डवपुराण में गिरनार पर्वत पर दिगम्बर और श्वेताम्बरों के विवाद का उल्लेख करते हुए कुन्दकुदाचार्य का स्मरण इस प्रकार किया है
"कुन्दकुन्दगणी येनोर्जयन्तगिरिमस्तके । सोऽवतात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।।"