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________________ सम्पादकीय मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमी गणी। मङ्गलं कुन्दकुदार्यो जैनधर्मोऽस्तु . मङ्गलम् ।। किसी भी मंगल कार्य के पूर्व जैनधर्मावलम्बियों में उक्त श्लोक पढ़ने की परम्परा है। स्पष्ट है कि भगवान् महावीर और उनकी दिव्य वाणी के धारक एवं द्वादशांग आगम के प्रणेता गौतम गणधर के बाद जैन परम्परा में श्रीकुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता दी गई है। कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक, प्राकृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभू, तर्कप्रधान आगमिक शैली में लिखे गये अध्यात्मविषयक साहित्य के युगप्रधान आचार्य हैं। अध्यात्म जैन वाङ्मय एवं प्राकृत साहित्य के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है। उनकी महत्ता इसी से जानी जा सकती है कि उनके पश्चाद्वर्ती आचार्यो की परम्परा अपने को कुन्दकुन्दावयी या कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवान्वित समझती है। खेद की बात है कि कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत विशाल साहित्य उपलब्ध होने पर भी विशेष अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के अभाव में तथा अनुश्रुतियों/किंवदन्तियों में उलझा होने के कारण उनका प्रामाणिक इतिवृत्त उपलब्ध नही होता है। आचार्य कन्दकन्द के विषय में अनेक अनुश्रुतियां प्रचलित हैं। विन्ध्यगिरि के एक शिलालेख के अनुसार उनके विषय में कहा जाता है कि वे चारण ऋद्धिधारी अतिशय ज्ञान सम्पन्न तपस्वी थे। चारण ऋद्धि के प्रभाव से वे पृथ्वी के चार अंगुल ऊपर गमन करते थे। इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्दाचार्य के जीवन के विषय में दो अनुश्रुतियाँ प्रमुख रूप से प्राप्त होती हैं- (1) विदेहगमन और (2) गिरनार पर्वत पर दिगम्बर-श्वेताम्बर विवाद। (1) विदेहगमन आचार्य कुन्दकुन्द की विदेहगमन विषयक घटना का सर्वप्रथम उल्लेख
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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