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________________ अनेकान्त-58/1-2 उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे। धर्माय तनु विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्या ।।' अर्थात् - प्रतिकार रहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा और रोग के उपस्थित हो जाने पर धर्म के लिये शरीर के छोड़ने को गणधर देव सल्लेखना कहते हैं। सल्लेखना दो प्रकार से की जाती है 1 काय सल्लेखना और 2 कषाय सल्लेखना। आहार आदि का शरीर की स्थिति देखकर क्रम से त्याग करके शरीर कृश करना काय सल्लेखना है और संसार शरीर और भोगों से विरक्त होता हुआ जो कषायों को कृश किया जाता है वह कषाय सल्लेखना कहलाती __ मरण प्रकृति का शाश्वत नियम है, जन्म लेने वाले का मरण निश्चित है। मरण के स्वरूप की जानकारी होने पर मरण के समय होने वाली आकुलता से बचा जा सकता है। मोह के कारण जीव मरण के नाम से ही भयभीत रहता है अतः ज्ञानी जीव ही मरण भय से रहित होता है। स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां वलानां च कारणवशात् संक्षयो मरणं ।। अर्थात् --- अपने परिणामों से प्राप्त हुई आय का, इन्द्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष मिलने पर नाश होना मरण है। दूसरे प्रकार से आय कर्म का क्षय होना मरण कहलाता है। आयुषः क्षयस्य मरणहेत्वात् ।।' अर्थात – आयु कर्म के क्षय को मरण का कारण माना है। उपरोक्त मरण में नए शरीर को धारण करने के लिए पूर्व शरीर का नष्ट होना तद्भव मरण कहलाता है। एवं प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है सम्यदर्शन, सम्यक् चारित्र, संयम आदि की अपेक्षा मरण के भेदों को अन्य प्रकार से भी कहा गया है पंडिद पंडिद मरणं, पंडिदयं बाल पंडिद चेव। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बाल बालं च ।।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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