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अनेकान्त-58/1-2
अर्थात् – पंडित-पंडित मरण, पंडित मरण, बाल पंडित मरण, बाल मरण और बाल-बाल मरण ये मरण के पाँच भेद कहे गये हैं। इनमें प्रथम तीन मरण ही प्रशंसनीय हैं। प्रथम पंडित पंडित मरण से केवलि भगवान निर्वाण प्राप्त करते हैं। उत्तम चारित्र के धारी साधुओं के पंडित मरण होता है। विरताविरत जीवों के तीसरा बाल पंडित मरण होता है। बाल मरण अविरत सम्यक् दृष्टि के और बाल-बाल मरण मिथ्यादृष्टि के होता है।
दूसरे पंडित मरण के प्रायोपगमन मरण इंगनि मरण और भक्त प्रत्याख्यान या भक्त प्रतिज्ञा मरण ये तीन भेद होते है।
आहारादिक को क्रम से त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों मरण समान हैं। इनमें शरीर के प्रति उपेक्षा के भाव का ही अन्तर है। जो मुनि न तो स्वयं अपनी सेवा करते हैं, और न ही दूसरों से सेवा, वैयावृत्ति कराते हैं। तृणादि का संस्तर भी नहीं रखते, इस प्रकार स्व-पर के उपकार से रहित शरीर से निस्पृह होकर स्थिरतापूर्वक मन को विशुद्ध बनाकर मरण को प्राप्त करते हैं। उसे प्रायोपगमन मरण कहते हैं। जिसमें सल्लेखनाधारी अपने शरीर की सेवा, परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरों से सेवा वैयावृत्ति नहीं कराता उसे इंगनि मरण कहते हैं। इसमें क्षपक स्वयं उठेगा, स्वयं बैठेगा और स्वयं लेटेगा। इस तरह वह अपनी समस्त क्रियायें स्वयं करता है। जिस संन्यास मरण में अपने और दूसरों के द्वारा किये गये उपकार वैयावृत्ति की अपेक्षा रहती है उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं।
भव का अन्त करने योग्य संस्थान और संहनन को प्रायोग्य कहते हैं। इनकी प्राप्ति होना प्रायोपगमन है। अर्थात् विशिष्ट संहनन व विशिष्ट संस्थान वाले ही प्रायोग्य ग्रहण करते हैं।
स्व अभिप्राय को इंगित कहते हैं। अपने अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुये जो मरण होता है, वह इंगनि मरण कहलाता है। भक्त शब्द का अर्थ आहार है और प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है जिसमें क्रम से आहारादि का त्याग करते हुये मरण किया जाता है उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं।