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________________ 52 अनेकान्त-58/1-2 विशुद्धि, दृढ़ता, आत्म लीनता, राग द्वेपनिवृति, संसार स्वरूप का चिन्तन और आत्म स्वरूप में ही विचारों का केन्द्रित होना होगा समाधि उतनी निर्दोष होगी । मन में उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष, मोह, भय, शोक आदि विकारी भावों को मन से दूर करके मन को अत्यन्त शान्त या समाधान रूप करके वीतराग भावों के साथ सहर्ष प्राण त्याग करने को समाधिमरण कहते हैं।' अर्थात् - भावों की विशुद्धिपूर्वक मरण करना समाधिमरण है । मन को जितना विशुद्ध बनाया जावेगा समाधि उतनी श्रेष्ठ होगी । वचन और काय की क्रिया से अलग मन की विशुद्धि समाधि है। वयणोच्चारण किरियं परिचत्तावीयराय भावेण । जो झाय अप्पाणं परम समाहि हवे तस्स ।। संजम नियम तवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्क झाणेण । जो झायइ अप्पाणं परम समाहि हवे तस्स ।। 4 अर्थात् – वचनोच्चार की क्रिया परित्याग कर वीतराग भाव से जो आत्मा को ध्याता है उसे परम समाधि कहते हैं । संयम नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान से जो आत्मा को ध्याता वह परम समाधि है। ऐसे चिन्तन पूर्वक समाधिमरण करने से भवों का अन्त होता है । अज्ञानी शरीर द्वारा जीव का त्याग करते हैं और ज्ञानी जीव द्वारा शरीर का त्याग करते हैं । अतः ज्ञानी जन का मरण ही सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण होता है । शरीर अपवित्र और नाशवान है किन्तु वह तप का साधन होने से भव समुद्र को पार करने को नौका के समान है। इसके माध्यम से तप धारण कर कर्मो का संवर और निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त किया जाता है। यदि यह शरीर संयम तप आदि की विराधना में कारण बनने लगे तो धर्म के लिये शरीर का त्याग कर देना चाहिये। क्योंकि शरीर तो अनेक बार प्राप्त हुआ है और होगा भी किन्तु धर्म हमने अभी तक ग्रहण नहीं किया यदि वह धर्म छूट गया तो कब अवसर आयेगा कहा नहीं जा सकता। शरीर का अन्त जान लेने पर शरीर से धर्म साधन में बाधा आने पर सल्लेखना ग्रहण करना चाहिये
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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