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________________ अनेकान्त-58/1-2 49 प्रजाजनों को त्रिवर्ग अर्थात् तीन पुरुषार्थ धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है, यदि वह ऐसा नहीं करता है तो, वह अपना एवं अपनी प्रजा का सर्वनाश करता है।16 स्पष्ट है कि राजा प्रजा को वर्णाश्रम धर्म पालन करने पर बाध्य करता था और उनके धर्मच्युत होने पर वह अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उन्हें दण्डित भी करता था। प्रत्येक जाति को परम्परागत नियमों का अनिवार्यतः पालन करना पड़ता था और यदि कोई व्यक्ति उन नियमों को तोड़ता था तो उसे दण्ड का भागी होना पड़ता था। कर्त्तव्य-पालन में बाधा डालनेवाले लोगों को दण्डित करना, जो पीढ़ियों से पूज्य है एवं समाज के लिए आदर्श हैं उनकी रक्षा करना तथा प्रजा के लिए पुरुषार्थ-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना राजा का परम धर्म (कर्तव्य) माना गया है। सोमदेव ने अपने ग्रंथ नीतिवाक्यामृत का शुभारम्भ उस राज्य को प्रणाम करके किया, जो धर्म, अर्थ और काम तीन फल प्रदान करता हैधमार्थकामफलाय राज्याय नमः। 8 कामन्दक ने स्पष्ट किया है कि निपुण मन्त्रियों द्वारा संभाला गया राज्य त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति कराता है। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में धर्म को राज्य की परमशक्ति मानते हुए उसे राजा से भी ऊपर रखा गया है। राजा तो साधक मात्र है, जिसके द्वारा धर्म की प्राप्ति होती है, वह स्वयं में साध्य नही है। प्राचीन भारतीय ग्रंथकारों द्वारा प्रतिपादित राजधर्म संबंधी सिद्धान्त एवं आदर्श, धर्म पर आधारित थे, जिस कारण राजाओं और उनके अधीनस्थ अधिकारियों में नैतिक भावना विद्यमान थी। किन्तु धीरे-धीरे इस व्यवस्था में विभिन्न दोष परिलक्षित होने लगे थे, क्योकि राजा एक प्रकार से शासन का पर्याय बन गया था किन्तु राज्यानुशासन के नियम यथावत् चलते रहे, फलतः राजा और प्रजा के बीच न तो कोई शक्तिशाली एवं विरोधी वर्ग ही उपस्थित हो सका और न ही कोई धार्मिक संस्था। लगभग दो सहम्न वर्षों तक राजधर्म के सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन न होने के कारण विचारों तथा व्यवस्था में एक शून्यता आ गई।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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