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अनेकान्त-58/1-2
ईस्वी प्रथम शताब्दी के बाद भारत पर विभिन्न बाह्य आक्रमणों का तांता लग गया और विदेशी आक्रान्ता भारत में लगातार लूटमार एवं अत्याचार करते रहे, जिनके कटु अनुभवों के कारण भारतीय राजनीतिक विचारकों तथा राजन्य कार्यो में संलग्न क्षत्रिय वर्ग में एक नवीन चेतना उत्पन्न हुई फलस्वरूप भारत के विभिन्न छोटे बड़े राज्यों को एकता के सूत्र में बांधकर विदेशी आक्रान्ताओं से भारत भूमि की रक्षा का विचार उत्पन्न हुआ । भारतीय राजनीतिक विचारकों में भी एक क्रान्ति प्रस्फुटिक हुई किन्तु इन विचारकों ने केवल अपने पूर्व के प्रचलित सिद्धान्तों को दोहराने में ही अपनी विद्वत्ता समझी, कोई नवीन संस्कृति के मंत्र को फूकना उचित नहीं समझा। परिणामतः भारत में देश - भक्ति की अग्नि नहीं सुलगाई जा सकी और न ही कोई परिपक्व नवीन राजधर्म संबंधी विचारधारा पनप सकी, जो राष्ट्र को परिपक्व संस्कृति की ओर अग्रसर कर पाती ।
सन्दर्भ-संकेत
1. महाभारत, शान्तिर्व, 56 / 130, 2. महाभारत, शान्तिपर्व, 59 / 30, 8 शुक्रनीति., 4/1/60, 4. मनुस्मृति अध्याय, 7, 5. महाभारत, शान्तिपर्व, 63 / 29 6 कामान्दक., 1 / 21, 7. अल्टेकर, ए. एस., भारतीय शासन पद्धति, पृ. 7, 8 महाभारत, सभापर्व, अध्याय-5; आदिपर्व, अध्याय - 142; वनपर्व अध्याय - 25, 9. महाभारत, शान्तिपर्व, 63 / 27, 10 मनुस्मृति, 7/8, 11. याज्ञवल्क्य, 2/21, 12 अर्थशास्त्र, 3/1/56, 13. बेनी प्रसाद, थ्योरी आफ गवर्नमेण्ट इन एनशियण्ट इंडिया, पृ. 75, 14 शकुन्तला रानी, महाभारत के धर्म, पृ 271 - 273, 15. अर्थशास्त्र, 16. महाभारत, शान्तिपर्व, 85/2, 17 शुक्रनीति 4/439, 18. नीतिवाक्यामृत, 1/1,
1/4,
19. कामन्दक 4/47
- रीडर - इतिहास विभाग एस. डी. कॉलेज, मुजफ्फरनगर