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अनेकान्त-58/1-2
में अपनी शक्ति बढ़ाकर तथा आपदाओं से उबरकर पूर्व स्थिति प्रदान करने का प्रयास करता था। वस्तुतः सामान्य धर्म (कर्तव्य) को दो भागों में बॉटा गया है- वैयक्तिक कर्त्तव्य तथा सामाजिक कर्तव्य। राजा के वैयक्तिक कर्तव्यों में आत्म-नियन्त्रण, आचरण, धर्म, नीतियों का पालन एवं वैयक्तिक सुरक्षा सम्मिलित किये गये थे, जिनका प्रजा पर उचित व अनुकूल प्रभाव पड़ता था। सार्वजनिक कर्तव्यों में नीति-निर्धारण, दण्ड-विधान एवं वे समस्त क्रिया-कलाप सम्मिलित किये गये, जिनका सीधा संबंध प्रजा के सुख व कल्याण से था। 13 अतः प्रजारंजन एवं प्रजा-अनुपालन के लिए शासन के विभिन्न अंगों का सम्यक् प्रयोग करते हुए राजा को जिस धर्म अथवा कर्तव्य का पालन अनिवार्यतः करना पड़ता था, वहीं राजधर्म कहा गया है।
राजधर्म का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष माना गया, जो दार्शनिक विचारधारा पर आधारित था। राज्य के प्रतिनिधि के रूप में राजा का ध्येय प्रजा के लिए शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करते हुए ऐसा वातावरण उत्पन्न करना था जिसमें सम्पूर्ण प्रजा सुखमय जीवन व्यतीत करती हुई अपने व्यवसाय, उद्योग, परम्परा, रूढ़ियों एवं धर्म का निर्विरोध पालन करे और अपनी अर्जित सम्पति और सुखों का भोग कर सके।
राजा शान्ति-व्यवस्था एवं सुख प्रदान करने का साधनमात्र था। राजा ही अपनी प्रजा के इहलोक एवं परलोक को सुरक्षित रखता था। उसका धर्म (कर्तव्य) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं सम्पति के अधिकारों की अवहेलना करनेवालों के विरुद्ध दण्ड का सम्यक् प्रयोग करते हुए प्रजा के परम्परागत रीति-रिवाजों को प्रतिपालित करने के लिए, नियम बनाना तथा सद्गुणों एवं धर्म की रक्षा करना था।" कौटिल्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि राजा को यह देखना चाहिए कि लोग कर्त्तव्यच्युत न हों। क्योंकि जो अपने धर्म में तत्पर रहता है और आर्यो के लिए बने नियमों का पालन करता है, वर्णो एवं आश्रम के नियमों का सम्मान करता है, वह इहलोक और परलोक दोनों में प्रसन्न रहता है। 15
जो राजा न्याय एवं नियमों का सम्यक् पालन करता है, वह अपने एवं