________________
अनेकान्त-58/1-2
47
के लिए प्रेरित करता है एवं उन्हें तोड़ने पर दंडित करता है अतः इसे राजा का नीतिशास्त्र कहा गया है।
यद्यपि राजधर्म अथवा राजनीति को सामाजिक जीवन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है, तथापि धर्मग्रंथों में यह भी स्वीकारा गया है कि राजनीति को इतना अधिक महत्त्व भी नहीं देना चाहिये कि समाज, जीवन और उनके नियम राजनीति के आधीन ही हो जाये। दूसरे शब्दों में धर्म-नियम राजधर्म अथवा अर्थशास्त्र अथवा राजशास्त्र के नियमों के अनुसार नहीं चलते चाहिए अपितु राजनीति के नियम धर्मशास्त्रों के अनुसार बनाये जाने चाहिए। यदि कहीं धर्मशास्त्रों के नियम और राजधर्म के नियमों में भेद जान पड़े और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाय, तो धर्मशास्त्रों के नियमों को ही श्रेष्ठ मानना चाहिए। याज्ञवल्क्यस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धर्मशास्त्र राजनीति अथवा राजधर्म से बलवान है।" कौटिल्य ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि व्यावहारिक शास्त्र और धर्मशास्त्र में जहाँ परस्पर विरोध हो, वहाँ धर्मशास्त्र के अनुसार ही अर्थ लगाये जाने चाहिए। यही कारण है कि राजधर्म-संबंधी जो नियम स्मृतियों में दिये गये हैं, उन्हें उन्हीं रूप में महाकाव्यों, दृश्यकाव्यों व अर्थशास्त्र आदि ने भी मान्यता प्रदान की है। ___ वस्तुस्थिति यह है कि प्राचीन भारतीय राजशास्त्र प्रणेताओं ने प्रजापालन एवं शासन-प्रबंध को व्यवस्थित एवं सुचारु रूप से चलाने तथा राजा के अपने चरित्र को नियंत्रित करने के लिए कुछ नियमों एवं प्रतिबंधों का निर्माण किया। ये नियम और प्रतिबंध ही महाभारत तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में राजधर्म के नाम से विख्यात हुए। इन नियमों एवं प्रतिबंधों का उद्देश्य राजा की उच्छृखलता पर नियंत्रण करना-मात्र था।
राजधर्म के दो प्रकार माने गये हैं- सामान्यधर्म और आपद्धर्म। इन दोनों प्रकार के धर्मो अर्थात् कर्तव्यों में सामान्य धर्म ही सार्वकालिक था। राजा पर विपत्ति का आना सम्पूर्ण प्रजा पर विपत्ति का द्योतक था। अतः उन संकटकालीन परिस्थितियों में राजा द्वारा आपद्धर्म का निर्वाह किया जाता था। इस धर्म का पालन कर राजा जहाँ अपयश से बचता था, वहीं कालान्तर