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________________ अनेकान्त-58/1-2 में मान्यता प्रदान की गयी है। यदि कुछ भेद हैं भी तो वे सैद्धान्तिक न होकर विस्तार-भेद-मात्र हैं। धर्मशास्त्रों में राज्यानुशासन को अत्यन्त गंभीर विषय स्वीकार करते हुए इस बात पर जोर दिया गया है कि शासन-व्यवस्था को चलानेवाले व्यक्ति अर्थात् राजा, पुरोहित, मंत्री आदि सभी राजधर्म के ज्ञाता अथवा श्रुतिवान् होने चाहिए। महाभारत के शान्तिपर्व के राजधर्मपर्व के विभिन्न अध्यायों में राजा और मन्त्रियों के कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों, कर-व्यवस्था, सैन्य-व्यवस्था एवं शासन के विभिन्न अंगों का जो विशद विवरण प्राप्त होता है वह पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों से अधिक विस्तृत और सांगोपांग है।' शान्तिपर्व के अतिरिक्त महाभारत के कुछ अन्य अध्यायों में भी राजधर्म-सम्बन्धित विषयों पर विचार किया गया है, जिसमें सभापर्व, आदिपर्व एवं वनपर्व प्रमुख हैं। महाभारत में मुख्य रूप से राजा के कर्तव्यों को राजधर्म कहा गया है, इसी के माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साथ ही राजा और शासन के संबंधों को भी समझा गया है। भीष्म ने तो सभी धर्मों में राजधर्म को श्रेष्ठ मानते हुए इसी के द्वारा सभी वर्गों का परिपालन संभव माना हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में राजनीति को अनेक नामों से पुकारा गया है। राजशास्त्रप्रणेताओं ने इसे राजधर्म के अतिरिक्त दण्डनीति, नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र आदि नामों से पुकारा है परन्तु समाज के जिस प्रमुख तत्त्व की प्रधानता जिस ग्रंथ में विशेष रूप से दी गयी है उस ग्रंथ को तदनुसार नाम दे दिया गया। यदि सूक्ष्मता से विवेचन किया जाय तो ज्ञात होता है कि नामों की भिन्नता के अतिरिक्त इन समस्त ग्रंथों में वर्णित विषय राजनीति अथवा राज्यानुशासन से संबंधित है। राजा, राज्य की समृद्धि तथा प्रजा के कल्याण के लिए धनोपार्जन करता था, उसे संरक्षण प्रदान करता था तथा प्रजा को कष्ट देनेवाले समाज विरोधी-तत्त्वों को दण्ड भी देता था। राजा के इन कार्यों को देखते हुए इसे दण्डनीति नाम दे दिया गया। मनु ने भी स्वीकारा है कि दण्ड के द्वारा ही राजा कुशल शासक बनता है। 10 मनुष्य द्वारा अपने जीवन में श्रेष्ठ आचरण करने के लिए जिन नैतिक मूल्यों को प्रतिपादित किया गया, वे सभी नीतिशास्त्र में वर्णित हैं। चूंकि राजा ही अपने प्रभाव और कत्यों से प्रजा को नैतिक आचार
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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