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प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्रतिबिम्बित राजधर्मः सिद्धान्त एवं व्यवहार
-डॉ. मुकेश बंसल सामान्यतः राजा के धर्म को राजधर्म कहा गया है। परन्तु संस्कृत साहित्य मे राजधर्म शब्द का प्रयोग इससे कहीं अधिक व्यापक रूप में किया गया है। महाभारत के शांति पर्व में शासन की कला एवं उससे संबंधित शास्त्र की चर्चा करते हुए राजधर्म को सभी धर्मो का सार एवं विश्व का सबसे बड़ा उद्देश्य बताया गया है।
राजधर्म के अन्तर्गत राजा के कर्त्तव्य, आचार-विचार, व्यवहार, गुण तथा शासन के विभिन्न अंगों पर प्राचीन काल से ही चिन्तन-मनन होता रहा है। राजधर्म की विशेषता और महत्त्व के कारण ही वैशालाक्ष, बृहस्पति, उशना आदि के द्वारा शासन-संबंधी विषयों पर शास्त्र लिखे जाने का उल्लेख महाभारत में प्राप्त होता है। शुक्रनीतिसार में राजा को स्वर्ण युग का प्रवर्तक अथवा देश की विपत्ति, युद्ध एवं अशान्ति से रक्षा करने वाला बताते हुए उसके धर्म को राजधर्म माना गया हैं। मनुस्मृति में राजधर्म शब्द का प्रयोग नृपतन्त्र अथवा राजतन्त्र के सामान्यतः प्रचलित सिद्धान्तों एवं नियमों के लिए किया गया है। राजधर्म और राजशास्त्र पर्याय रूप में प्राचीन साहित्य में प्रयुक्त किये गये हैं। महाभारत एवं अर्थशास्त्र सहित विभिन्न ग्रन्थों में राजधर्म को राजशास्त्र अथवा राज्यानुशासन के अर्थो में प्रयुक्त किया गया है। प्रमुख स्मृतियों में राज्य-व्यवस्था का वर्णन राजधर्म के नाम से किया गया है। समाज के विभिन्न वर्गों के कर्तव्यों का वर्णन करने वाले धर्मशास्त्रों अथवा इतिहास-पुराण ग्रंथों में राज्य-संबंधी नियमों का वर्णन, राजा के कर्त्तव्य के रूप में राजधर्म के नाम से किया गया है। राजधर्म के जो नियम स्मृतियों अथवा धर्मशास्त्रों में दिये गये हैं, उन्हे उसी प्रकार विभिन्न राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित ग्रंथों