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________________ अनेकान्त-58/1-2 ___ अर्थात् दूसरा दूसरा ही है, इसलिये उससे दुःख होता है और आत्मा आत्मा ही है इसलिये उससे सुख होता है। इसलिये महात्माओं ने आत्मा के लिए ही उद्यम (पुरुषार्थ) किया है। और जब आत्मा में स्थिरता आ जाती है तो ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति।। अर्थात् जिसने आत्मस्वरूप के विषय में स्थिरता प्राप्त कर ली है ऐसा योगी बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता और देखते हुए भी नहीं देखता है। उक्त स्थिति आत्मयोगी की होती है। यही जीव का अन्तिम लक्ष्य होता है कि उसे पुनः संसार में नहीं आना पड़े और उसे मोक्ष सुख मिले। इस तरह आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने अपनी कृति 'इष्टोपदेश' के माध्यम से जीव को संसार के दुःखों से परिचित कराते हुए उसका हित आत्मरमण में ही है; इसका सच्चा अभीष्ट उपदेश दिया है; जो प्रत्येक मुमुक्षु के लिए मननीय एवं आचरणीय है। सन्दर्भ (1) आचार्य जिनसेन : आदिपुराण 1/52, (2) जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सख्या 40 पृ. 24, श्लोक 10-11, (3) आचार्य शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव 1/35, (4) आचार्य पूज्यपाद - इष्टोपदेश - 51, (5) भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा - 2/221, (6) वही, 2/221-230, (7) “हिंसानृतस्तेयाबह्म परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" ; तत्त्वार्थसूत्र 7/1, (8) इप्टोपदेश - 3, (9) वासना मात्रमैवेतत्, सुख दुःखं च देहिनाम्। __ तथा ह्युद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि ।। वही-6 (10) वही-10, (11) वही-28, (12) वही-11, (13) वही-8, (14) वही-19, (15) वही-21, (16) वही-50, (17) वही-13, (18) वही-14, (19) वही-16, (20) वही-17, (21) वही-7, (22) वही-23, (23) वही-37-38, (24) वही-24, (25) वही-48, (26) वही-26, (27) वही-30, (28) वही-32, (29) वही-4, (30) वही-22, (31) वही-33, (32) वही-27, (33) वही-29, (34) वही-34, (35) वही-49, (36) वही-45, (37) वही-41 -ए-27, नर्मदा विहार, सनावाद-451111 (म. प्र.)
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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