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________________ अनेकान्त-58/1-2 अर्थात जो गुरु के उपदेश से अभ्यास करते हुए अपने ज्ञान (स्वसंवेदन) से अपने और पर के अंतर (भेद) को जानता है वह मोक्ष सम्बन्धी सुख का अनुभव करता रहता है। जीवन भावना भाता. है कि एकोऽहं निर्ममः शद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।। बाह्याः संयोगजा भावा, मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा।। 32 अर्थात् मैं एक, ममतारहित, शुद्ध, ज्ञानी, योगीन्द्रों के द्वारा जानने लायक हूँ। संयोगजन्य जितने भी देहादिक पदार्थ हैं वे मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न में व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोहं, न युवैतानि पुद्गले ।। 33 अर्थात् मेरी मृत्यु नहीं तब भय किसका? मुझे व्याधि नहीं तब पीड़ा कैसे? न मैं बाल हूँ, न मैं बूढा हूँ, न युवा हूँ; ये सब दशाएं पौद्गालिक शरीर में ही पायी जाती हैं। अपनी आत्मा की सद् अभिलाषा होने से, अपने प्रिय पदार्थ आत्मा को जानने वाला होने से, अपने आप अपने हित का प्रयोग करने वाला होने से आत्मा ही आत्मा का गुरु है। अतः कहते हैं कि अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत्।। तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः।।35 अर्थात् अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट करने वाली आत्मा की उत्कृष्ट ज्योति महान ज्ञान रूप है। मोक्षाभिलाषी पुरुषों के लिए वही (उसी के विषय में) पूछना चाहिये, उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिए, उसी का दर्शन करना चाहिए। क्योंकि परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्। अतएव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः।।36
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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