________________
अनेकान्त-58/1-2
कर्म निर्जरा - आत्मा के चितवन रूप ध्यान से तथा परीषह आदि का अनुभव न होने के कारण कर्मो के आसव को रोकने वाली निर्जरा शीघ्र होने लगती है। 24 आत्म ध्यान का आनन्द निरन्तर बहुत से कर्म रूपी ईधन को जलाता है। जीव मुक्ति हेतु चिन्तन – इष्टोपदेश के अनुसार
बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात।
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन, निर्ममत्वं विचिन्तयेत्।। 25 अर्थात् ममता भाव वाला जीव कर्मो से बँधता है और ममतारहित जीव मुक्त हो जाता है। इसलिए पूरे प्रयत्न के साथ साम्य भाव का चितवन करना चाहिए।
मोहभाव से मैंने सभी पुद्गल परमाणुओं को बार-बार भोगा और छोड़ा है। अब जूठन के समान उन त्यक्त पदार्थो के प्रति इच्छा ही नहीं है। ऐसी स्थिति में
परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव।
उपकुर्वन्परस्याज्ञः, दृश्यमानस्य लोकवत् ।। 28 अर्थात् पर के उपकार का त्याग करके अपने उपकार में तत्पर हो जा। दिखाई देने वाले इस जगत् की तरह अज्ञानी जीव अन्य पदार्थ का उपकार करता हुआ पाया जाता है। __ अन्तिम लक्ष्य-आत्मभाव की प्राप्ति - आत्मभाव से मोक्ष की प्राप्ति होती है- “यत्र भावः शिवं दत्ते।" 29 अतः मन की एकग्रता से इन्द्रियों को वश में कर, चित्त वृत्ति को एकाग्र कर अपने में स्थित आत्मा का ध्यान करना चाहिए। गुरु का उपदेश इसमें सहकारी बनता है। कहा भी है
गुरुपदेशाभ्यासात्संवित्तेः स्वपरान्तरम् ।। यः स जानाति मोक्ष सौख्यं निरन्तरम्।।"