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अनेकान्त-58/1-2
अर्थात् जो मनुष्य त्याग (दान) करने के लिये अथवा अपने सुख के लिए धन संचित करता है; वह ऐसा ही है जैसे वह स्नान कर लूँगा; यह सोचकर अपने शरीर को कीचड़ से लीपता है।
भोगोपभोग असेव्य - आरम्भ में संताप के कारण, प्राप्त होने पर अतृप्ति कारक तथा अन्त में जो बड़ी कठिनाई से भी छोड़े नहीं जा सकते; ऐसे भोगोपभोग को कौन विद्वान् आसक्ति के साथ सेवन करेगा? 20
मोह का कारण अज्ञान है और ज्ञान से उत्तम तत्त्व की प्राप्ति होती हैइष्टोपदेश के अनुसार - 'मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि' 21 अर्थात् मोह से ढका हुआ ज्ञान वास्तविक स्वभाव को नहीं जान पाता है। अतः अज्ञान की सेवा छोड़कर ज्ञान की उपासना करना चाहिए; क्योंकि अज्ञानी की सेवा - उपासना अज्ञान देती है और ज्ञानियों की सेवा-उपासना ज्ञान उत्पन्न करती है। यह बात अच्छी तरह प्रसिद्ध है कि जिसके पास जो कुछ होता है, उसी को वह देता है
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः।
ददाति यत्तु यस्यास्ति, सुप्रसिद्धमिदं वचः ।। 22 ज्ञान से जिस उत्तम तत्त्व की प्राप्ति होती है उससे विषयों के प्रति अरुचि बढ़ती है
यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। . तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।। यथा यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।
तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।।23 अर्थात् जैसे-जैसे ज्ञान में उत्तम तत्त्व आता जाता है वैसे-वैसे सुलभता से प्राप्त होते हुए भी विषय भोग रुचते नहीं हैं। जैसे-जैसे सुलभ विषय भी
आत्मा को रुचते नहीं हैं वैसे-वैसे अपने ज्ञान से श्रेष्ठ आत्मा का स्वरूप प्रतिभासित होने लगता है, उत्तम तत्त्व की प्राप्ति होने लगती है।