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अनेकान्त-58/1-2
दुःखसंदोहभागित्वं, संयोगादिह देहिनाम् ।
त्यजाम्येनं ततः सर्व, मनोवाक्कायकर्मभिः।।। अर्थात् संसारी प्राणियों को संयोग से दुःखों के समूह का भागीदार बनना पड़ता है अतः इन सबको मैं मन, वचन, काय से त्यागता हूँ।
संसार-परिभ्रमण – यह जीव अज्ञान से राग-द्वेष रूपी दो लम्बी डोरियों की खींचातानी से संसार रूपी समुद्र में बहुत काल तक घूमता रहता है, परिवर्तन करता रहता है। 12
देह-आत्म सम्बन्ध – यद्यपि शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्र आदि सब अन्य स्वभाव को लिए हुए हैं परन्तु मूढ़प्राणी मोहनीय कर्म के जाल में फँसकर उन्हें आत्मा के समान मानता है। जबकि स्थिति यह है कि- जो कार्य आत्मा का उपकार करने वाला है, वह शरीर का अपकार करने वाला है तथा जो शरीर का उपकार करने वाला है वह आत्मा का अपकार करने वाला है। यह आत्मा आत्मानुभव द्वारा स्पष्ट प्रकट होता है, जाना जाता है। शरीर के बराबर है, अविनाशी है, अनन्तसुखवाला है तथा लोक और अलोक को जानने-देखने वाला है। जीव (आत्मा) अन्य है और पुद्गल (शरीर) अन्य है। इस प्रकार तत्व का सार है।"
धन से सुख कैसे? सुख तो त्याग में है - जैसे कोई ज्वरशील प्राणी घी खाकर अपने को स्वस्थ मानने लग जाये, उसी प्रकार कोई एक मनुष्य मुश्किल से पैदा किये गये तथा जिसकी रक्षा करना कठिन है और फिर भी नष्ट हो जाने वाले हैं; ऐसे धन-आदिकों से अपने को सुखी मानने लग जाता है।” काल व्यतीत होने व आयु के क्षय को भी धनवृद्धि का कारण मानने वाले धनी व्यक्ति यह नहीं समझते कि उनका जीवन घट जायेगा। उनके लिए तो जीवन से अधिक धन इष्ट है। वास्तव में सुख धनसंचय में नहीं बल्कि उसके त्याग में है। 'इष्टोपदेश' के अनुसार
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः। स्व शरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति।।19