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________________ अनेकान्त-58/1-2 39 अंकित किया गया है। शैली सरल और प्रवाहमय है।" ___ इष्टोपदेश एक प्रेरक कृति है जो आत्म-जागरण की संवाहिका है। जीवन के दुःख-सुख कर्मजन्य हैं। देह और आत्मा को एकरूप मानने के कारण उसे संसार के दुःख उठाने पड़ते हैं। यदि वह जीव संसार परिभ्रमण से छुटकारा पाना चाहता है तो अपनी मनोदशा को स्थिर कर आत्मभावों को जगाकर आत्मस्वरूप में रमण करना चाहिए तभी वह स्व-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। 'इष्टोपदेश' में इन्हीं भावनाओं को शब्दांकित करते हुए जिन प्रमुख विन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है वह इस प्रकार हैं व्रत-अव्रत - पाप कार्यो से विरत होना व्रत है' और पाप कार्यो में रत रहना अव्रत है। आचार्य पूज्यपाद ने इप्टोपदेश में बताया है कि वरं व्रतैः पदं दैवं, नाव्रतैर्वत नारकं। छाया तपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् अर्थात् व्रतों के द्वारा देवपद प्राप्त करना श्रेष्ठ है; किन्तु अव्रतों के द्वारा नरक पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है। व्रत और अव्रत में छाया और धूप की तरह अन्तर होता है। भोग रोग तथा दुःख-स्वरूप हैं – इष्टोपदेश के अनुसार- 'देह धारियों को जो सुख और दुःख होता है वह केवल कल्पना (वासना या संस्कार) जन्य ही है। भोग भी आपत्ति के समय रोगों की तरह प्राणियों को आकुलता प्रदान करने वाले होते हैं। दुःख कर्मजन्य होते हैं – इष्टोपदेश के अनुसार “विराधकः कथं हन्त्रे, जनाय परिकुप्यति' 10 अर्थात् जिसने पूर्व में दूसरे को सताया है; ऐसा पुरुष उस सताये गये और वर्तमान में अपने को मारने वाले के प्रति क्यों क्रोधित होता है ? यहाँ तात्पर्य यह है कि यदि पूर्व जन्म में जीव ने किसी को दुःख पहुँचाया है तो इस जन्म में उसे उसका फल भोगना ही पड़ेगा। देह (शरीर) का संयोग भी जीव के दुःख का कारण है अतः वह भावना भाता है कि
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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