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________________ अनेकान्त-58/1-2 32 जैनेन्द्रे निज शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा। सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेकः स्वकः।। छन्दस्सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह स पूज्यपाद-मुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः।।' अर्थात् जिनका प्रथम नाम देवनन्दि था। वे बुद्धि की महत्ता के कारण जिनेन्द्रबुद्धि और देवताओं द्वारा चरण पूजे जाने के कारण पूज्यपाद कहलाये। उन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि जैसा उत्कृष्ट सिद्धान्तग्रन्थ, जैन अभिषेक (जन्माभिषेक) तथा अपनी सूक्ष्म बुद्धि से समाधिशतक आदि ग्रन्थों की रचना . की। वह पूज्यपाद आचार्य मुनियों के समूहों के द्वारा पूजनीय हैं। आचार्य पूज्यपाद के पिता का नाम माधवभट्ट और माता का नाम श्रीदेवी ज्ञात होता है। ये कर्नाटक के कोले नामक ग्राम के निवासी और ब्राह्मण कुलभूषण थे। बाल्यकाल में ही नाग द्वारा निगले गये मेंढक की व्याकुलता देखकर इन्हें संसार से वैराग्य हो गया और उन्होंने दिगम्बरी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। वे मूलसंघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कार गण के पट्टाधीश थे। विद्वानों ने इसका समय ईस्वी सन् की छठी शताब्दी माना है। आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित रचनाएं इस प्रकार हैं1. दशभक्ति, 2. जन्माभिषेक, 3. तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धिः), 4. समाधि तन्त्र, 5. इष्टोपदेश, 6. जैनेन्द्र व्याकरण, 7. सिद्धिप्रिय स्तोत्र इन कृतियों से आचार्यपूज्यपाद की महत्ता बढ़ती ही गयी। ज्ञानार्णव के कर्ता आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्तसम्भवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते।।' अर्थात् जिनकी शास्त्रपद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के मल को दूर करने में समर्थ है उन देवनन्दी आचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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