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अनेकान्त-581-2
भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः।
उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः।।3 भोजन और वस्त्र आदि जो पञ्चेन्द्रिय के विषय हैं, उनमें जो एक बार भोगकर छोड़ देने योग्य है, वह भाग है और जो भोगकर पुनः भोगने योग्य है, वह उपभोग है। सप्त शीलो के अन्तर्गत प्रथम तीन गुणव्रत स्थानीय व्रतों में उमास्वामी ने जो देशव्रत ग्रहण किया है वह आचार्य समन्तभद्र की दृष्टि में देशावकाशिकव्रत है, जिसे उन्होंने शिक्षाव्रतों में ग्रहण किया है। ये दोनों परिभाषा की दृष्टि से एक ही हैं, मात्र नामों में अन्तर है। उमास्वामी ने सप्त शीलों में अतिथि संविभागवत स्वीकार किया है, जबकि समन्तभद्र ने उसके स्थान पर वैयावृत्य को परिगणित किया है। उमास्वामी ने श्रावक के एक विशेष कर्तव्य दान का पृथक् उल्लेख मात्र किया है और उसके भेदों का तो नाम भी नहीं लिया है, वहीं आचार्य समन्तभद्र ने दान को वैयावृत्य के अन्तर्गत माना है और उसके चार भेद भी किये हैं।
सल्लेखना के पाँच अतिचारों में उमास्वामी ने सुखानुबन्ध (पूर्व में भोगे गये भोगों का स्मरण करना) का उल्लेख किया है, जबकि आचार्य समन्तभद्र ने उसके स्थान पर भय को ग्रहण किया है, जो इहलोक और परलोक रूप भय की ओर इशारा करता है। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी समन्तभद्र ने सुखानुबन्ध को निदान में परिगृहीत कर भय को पृथक् स्थान दिया है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने जहाँ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का मात्र नामोल्लेख किया है और आचार्य उमास्वामी ने इनकी चर्चा भी नहीं की है उनका विस्तार से उल्लेख आचार्य समन्तभद्र ने किया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि कुन्दकुन्द और उमास्वामी ने प्रसङ्गवशात् श्रावकधर्म की चर्चा की है, जबकि आचार्य समन्तभद्र ने श्रावकधर्म को लक्ष्य करके उसका साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक की आचार संहिता का जो विस्तृत और स्पष्ट विवेचन किया है, वह आद्य तो है ही.