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________________ अनेकान्त-58/1-2 31 आचार्य वीरनन्दी, वीर चामुण्डदाय और पण्डितप्रवर आशाधर ने रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत माना है । " अणुव्रतों की रक्षा के लिये अतिचारों से बचना अपेक्षित है। आचार्य उमास्वामी ने तो व्रतों में स्थिरता लाने के लिये प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं का उल्लेख किया है तथा अन्य भी अनेक भावनाओं का पृथक् विवेचन किया है । " तत्त्वार्थसूत्र और आचार्य समन्तभद्रकृत श्रावकाचार में उल्लेखित अतिचारों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में परिग्रह परिमाण व्रत के जो अतिचार बतलाये गये हैं, उनसे पॉच की एक निश्चित संख्या का अतिक्रमण होता है तथा भोगोपभोगव्रत के जो अतिचार बतलाये गये हैं, वे केवल भोग पर ही घटित होते हैं, उपभोग पर नहीं, जबकि व्रत के नामानुसार उनका दोनों पर ही घटित होना आवश्यक है । अतः आचार्य समन्तभद्र ने उक्त दोनों ही व्रतों के एक नये ही प्रकार के पाँच-पाँच अतिचारों का निरूपण किया है, जिससे आचार्य समन्तभद्र का अतिचार विवेचन सर्वाधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है । " / सभी आचार्यो ने श्रावक के अष्ट मूलगुणों का उल्लेख किया है, किन्तु वे आठ मूलगुण कौन-कौन से हैं? इसमें आचार्यो में परस्पर मतभेद है भिन्न-भिन्न विचारधारा के बावजूद भिन्न-भिन्न आचार्यो का मूल उद्देश्य एक मात्र अहिंसा ही है और वह कहीं भी विखण्डित नहीं हुआ है । आचार्य समन्तभद्र ने तीन मकार और पाँच अणुव्रतों को श्रावक के अष्ट मूलगुण स्वीकार किया है। 20 इसी प्रकार आचार्य शिवकोटि ने भी उपर्युक्त आठ मूलगुण स्वीकार किये हैं, किन्तु अज्ञानियों अथवा बालकों की दृष्टि से उन्होंने पञ्चाणुव्रतों के पालने के स्थान पर पञ्च उदम्बरफलों के त्याग का ही अष्टमूलगुणों में समावेश किया है । " महापुराणकार आचार्य जिनसेन ने प्रायः आचार्य समन्तभद्र का ही अनुसरण किया है। हाँ ! इतना विशेष है कि उन्होंने मधु के स्थान पर द्यूत (जुआ) त्याग का उल्लेख किया है और मधुत्याग को मांसत्याग में गर्भित कर लिया है। 22 24 आचार्य सोमदेवसूरि 2" आचार्य अमृतचन्द्रसूरि 2", आचार्य पद्मनन्दी 25,
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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