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________________ अनेकान्त-58/1-2 देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानम् राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम्। धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकम् लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः ।। प्राचीन परम्परा में जैन साहित्य को दो भागों में विभक्त किया गया हैअङ्ग और अगवाह्य ।" जिनका सीधा सम्बन्ध तीर्थङ्कर की वाणी से है तथा गणधरी द्वारा रचित है, वह अङ्ग साहित्य है। ये संख्या में बारह होने के कारण द्वादशागवाणी के नाम से जाने जाते हैं। बाद में उन्हीं अगों को आधार बनाकर परवर्ती आचार्यों द्वारा रचित साहित्य अङ्गवाह्य है। आचार्य समन्तभद्र ने जैन साहित्य को प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग- इन चार भागों में विभक्त किया है। चारों अनुयोगो की विषय वस्तु देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य समन्तभद्र द्वारा किया गया वह विभाजन अङ्गबाह्य साहित्य को आधार बनाकर किया गया है। यद्यपि आचार्य समन्तभद्र ने चारों अनुयोगों के विषय मात्र का उल्लेख किया है। उन्होंने कहीं किसी ग्रन्थ का इस प्रकार उल्लेख नहीं किया है कि अमुक ग्रन्थ अमुक अनुयोग का ग्रन्थ है, किन्तु परवर्ती विद्वानो ने विषय को आधार बनाकर चारों अनुयोगों के ग्रन्थों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है। समन्तभद्र द्वारा बतलाये गये चारों अनुयोगों के विषय को ध्यान में रखकर अङ्ग साहित्य को भी अनुयोगों में विभक्त किया जा सकता है, किन्तु चारों अनुयोगों में अगसाहित्य को विभक्त करने का उल्लेख ग्रन्थों में मुझे देखने को नही मिला है। हाँ! अनुयोगों के क्रम को देखकर ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि आचार्य समन्तभद्र का यह क्रम-निर्धारण एक सामान्य अनगढ़ व्यक्ति को गढ़ने की प्रक्रिया है। सामान्यतया व्यक्ति सर्वप्रथम उन तिरेसठशलाका पुरूषों के जीवन का अध्ययन करे और जाने कि ससार और शरीर की स्थिति क्या है? और उससे उभरने के लिये हमारे आदर्श पुण्यश्लोक पुरुषों ने क्या किया है? तथा कैसे मोक्षमार्ग में आरूढ़ हुये हैं? यह सब जानने के पश्चात् करणानुयोग का स्वाध्याय कर कर्म और कर्मफल को जाने। तदनन्तर चरणानुयोग का स्वाध्याय
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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